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विजय तेंडुलकर (६ जनवरी १९२८ - १९ मई २००८) प्रसिद्ध मराठी नाटककार, लेखक, निबंधकार, फिल्म व टीवी पठकथालेखक, राजनैतिक पत्रकार और सामाजिक टीपकार थे। भारतीय नाट्य व साहित्य जगत में उनका उच्च स्थान रहा है। वे सिनेमा और टेलीविजन की दुनिया में पटकथा लेखक के रूप में भी पहचाने जाते हैं।
विजय धोंडोपंत तेंदुलकर का जन्म 6 जनवरी 1 9 28 को महाराष्ट्र के कोल्हापुर में भावलविकिर सरस्ववत ब्राह्मण परिवार में हुआ था [उद्धरण वांछित], जहां उनके पिता ने एक लिपिक नौकरी की और छोटे प्रकाशन व्यवसाय चलाया। घर पर साहित्यिक माहौल ने युवा को लिखने के लिए प्रेरित किया। उसने छह साल की उम्र में अपनी पहली कहानी लिखी
वह पश्चिमी नाटकों को देखकर बड़ा हुआ, और नाटकों को खुद लिखने के लिए प्रेरित किया। ग्यारह साल की उम्र में, उन्होंने अपने पहले नाटक में लिखा, निर्देशन और अभिनय किया।
14 साल की उम्र में उन्होंने 1 9 42 में भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया, अपनी पढ़ाई छोड़ दी। बाद में उसे अपने परिवार और दोस्तों से अलग कर दिया। इसके बाद लेखन ने अपना आउटलेट बना लिया, हालांकि उनके शुरुआती लेखन अधिकांश व्यक्तिगत स्वभाव थे, और प्रकाशन के लिए अभिप्रेत नहीं थे।
विजय तेंदुलकर प्रमुख भारतीय नाटककार, फिल्म और टेलीविजन लेखक, साहित्यिक निबंधकार, राजनीतिक पत्रकार और मुख्यतः मराठी में सामाजिक टिप्पणीकार थे। वह अपने नाटकों, शांताता के लिए सबसे प्रसिद्ध हैं! अदालत चाला अहम (1967), गशिरम कोतवाल (1972), और सखाराम बाइंडर (19 72)। वास्तविक जीवन की घटनाओं या सामाजिक उथल-पुथल से तेंदुलकर के नाटकों से प्रेरित कई प्रेरणा, जो कठोर वास्तविकताओं पर स्पष्ट प्रकाश प्रदान करते हैं। उन्होंने अमेरिकी विश्वविद्यालयों में "नाटककार लेखन" का अध्ययन करने वाले छात्रों को अपना मार्गदर्शन प्रदान किया। पांच दशकों से अधिक के लिए, तेंदुलकर एक महान प्रभावशाली नाटककार और महाविद्यालय में थिएटर व्यक्तित्व रहे थे।
लेखन
१९६१ में उनका लिखा नाटक 'गिद्ध' खासा विवादास्पद रहा। 'ढाई पन्ने','शांताता! कोर्ट चालू आहे', 'घासीराम कोतवाल' और 'सखाराम बाइंडर' विजय तेंडुलकर के लिखे बहुचर्चित नाटक हैं। जिन्होंने मराठी थियेटर को नवीन ऊँचाइयाँ दीं। कहा जाता है कि उनके सबसे चर्चित नाटक घासीराम कोतवाल का छह हज़ार से ज़्यादा बार मंचन हो चुका है। इतनी बड़ी संख्या में किसी और भारतीय नाटक का अभी तक मंचन नहीं हो सका है। उनके लिखे कई नाटकों का हिन्दी समेत दूसरी भाषाओं में अनुवाद और मंचन हुआ है। पाँच दशक से ज़्यादा समय तक सक्रिय रहे तेंडुलकर ने रंगमंच और फ़िल्मों के लिए लिखने के अलावा कहानियाँ और उपन्यास भी लिखे। नए प्रयोग, नई चुनौतियों से वे कभी नहीं घबराए, बल्कि हर बार उनके लिखे नाटकों में मौलिकता का अनोखा पुट होता था। कल्पना से परे जाकर सोचना उनका विशिष्ट अंदाज था। भारतीय नाट्य जगत में उनकी विलक्षण रचनाएँ सम्मानजनक स्थान पर अंकित रहेंगी। सत्तर के दशक में उनके कुछ नाटकों को विरोध भी झेलना पड़ा लेकिन वास्तविकता से जुड़े इन नाटकों का मंचन आज भी होना उनकी स्वीकार्यता का प्रमाण है। उनकी लिखी पटकथा वाली कई कलात्मक फ़िल्मों ने समीक्षकों पर गहरी छाप छोड़ी। इन फ़िल्मों में अर्द्धसत्य, निशांत, आक्रोश शामिल हैं। हिंसा के अलावा सेक्स, मौत और सामाजिक प्रक्रियाओं पर उन्होंने लिखा। उन्होंने भ्रष्टाचार, महिलाओं और गरीबी पर भी जमकर लिखा।
थियेटर रंगायन
विजय तेंदुलकर ने अपने थियेटर समूह ‘रंगायन’ के जरिये नाटकों में नए प्रयोग करने शुरू किए। इस काम में उन्हें सहयोग मिला श्रीराम लागू, मोहन अगाशे और सुलभा देशपांडे से। इन नए कलाकारों ने तेंदुलकर की रचनाओं को रंगमंचीय स्वरूप प्रदान किया।
सन 1961 में उन्होंने ‘गिद्वे-गिद्व’ नाटक लिखा, लेकिन इस नाटक के एकदम नए विषय होने की वजह से इसका प्रदर्शन नौ साल बाद सन 1970 में संभव हो सका। इस नाटक में नैतिक रूप से परिवार के टूटते ढांचे और हिंसा के छिपे हुए स्वरूपों को रंग की भाषा में दिखाया गया। तेंदुलकर ने इस नाटक में घरेलू लिंग आधारित सांप्रदायिक और राजनीतिक हिंसा को नए तरह से परिभाषित किया। इस नाटक ने उन्हें रंग जगत में ऊंचाइयों पर पहुंचा दिया।
ड्रिग ड्यूरमर की लघु कहानी ‘ ट्रैप्स’ को आधार बना कर उन्होंने एक नाटक लिखा ‘शांतता कोर्ट चालू आहे' (खामोश अदालत जारी है)। सन 1967 में लिखे और खेले गए इस नाटक ने नाट्यजगत में धूम मचा दी और उन्हें एक सिद्धहस्त लेखक के रूप में स्थापित कर दिया। इस नाटक की लोकप्रियता आज चालीस साल बाद भी उतनी ही बनी हुई है। आज भी इसके मंचन में लोगो की भारी भीड़ इस बात को साबित करती है।
सन 1972 में तेंदुलकर की कलम से एक और नाटक आया ‘सखाराम बाइंडर’। नैतिकता और मूल्यों के द्वन्द्वों को उभारता यह नाटक आलोचको के साथ-साथ दर्शकों को भी काफ़ी पसंद आया। लेकिन इसी साल उन्होंने एक और नाटक लिखा ‘घासीराम कोतवाल’। अठारवीं सदी के मराठा शासन में आई कमज़ोरियों को दर्शाता यह नाटक अमरता का तत्व लिए हुए था।
सम्मान
पद्मभूषण (१९८४), से सम्मानित तेंडुलकर को श्याम बेनेगल की फ़िल्म मंथन की पटकथा के लिए वर्ष १९७७ में राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। बचपन से ही रंगमंच से जुड़े रहे तेंडुलकर को मराठी और हिंदी में अपने लेखन के लिए महाराष्ट्र राज्य सरकार सम्मान (१९५६, १९६९, १९७२),संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार (१९७१), फिल्म फेयर पुरस्कार (१९८०, १९९९) संगीत नाटक अकादमी फेलोशिप, एवं महाराष्ट्र गौरव (१९९९) जैसे सम्मानजनक पुरस्कार मिले थे।