Advertisement
डॉक्टर भगवानदास1869-1958 1955 में सम्मानितः डॉक्टर भगवानदास शिक्षाशास्त्री, स्वतंत्रता सेनानी, दार्शनिक व कई संस्थाओं के संस्थापक रहे। उन्होंने डॉक्टर एनी बेसेंट के साथ व्यवसायी सहयोग किया, जो बाद मे सेंट्रल हिंदू कॉलेज की स्थापना का मुख्य कारण बना। सेंट्रल हिंदू कॉलेज, काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना का मूल है। बाद में उन्होंने काशी विद्यापीठ की स्थापना की और वहां प्रमुख अध्यापक भी रहे। डॉक्टर भगवान दास ने हिन्दी और संस्कृत मे 30 से भी अधिक पुस्तकों का लेखन किया है।
दर्शन
"अहं एतत् न' (मैं-यह-नहीं) ऐसा महावाक्य है कि यदि इसके तीनों शब्दों के अर्थ एक साथ लिए जाएं तो केवल एक एकाकार, एक रस, अखंड, निष्क्रिय, संवित् देख पड़ती है। "मै-यह-नहीं' इसमें कोई क्रिया विक्रिया नहीं है, कोई परिवर्त परिणमन नहीं है। केवल एक बात सदा के लिए कूटस्थवत् स्थिर है, अर्थात् केवल "मैं' है और "मैं' के सिवाय और कुछ नहीं है। अथच "मैं' अपने सिवाय कोई अन्य वस्तु, ऐसे ऐसे रूप रंग नाम आदि का अन्य पदार्थ नहीं हूँ। यदि इस वाक्य के दो खंड कीजिए, पहले "मै-यह' और फिर "यह-नहीं' तो इसी वाक्य में संसार की सब कुछ क्रिया, इसके संपूर्ण परिवर्त का तत्व, देख पड़ता है "मै-यह-हूँ', यह जीवन का, जनन का, शरीरत्याग का, स्वरूप है। क्रियामात्र का यही द्वंद स्वरूप है ¾ लेना और देना, पकड़ना और छोड़ना, बढ़ना और घटना, हँसना और रोना, जीना और मरना, उपाधि का ग्रहण करना और उसमे अहंकार करना और फिर उसको छोड़कर उससे विमुख होना, पहले एक वस्तु में सुख मानना और फिर उसी वस्तु में पीछे दु:ख मानना। अध्यारोप और अपवाद, प्रवृत्ति ओर निवृत्ति, इन दो शब्दों में संसार का, संसरण का तत्व सब कह दिया है। द्रष्टा और दृश्य, भोक्ता और भोग्य, विषय और विषयी, ज्ञाता और ज्ञेय, एष्टा और इष्य, कर्त्ता और कार्य, जीव और देह, चेतन और जड़, आत्मा और अनात्मा, "मैं' और "यह', दोनों इसमें मौजूद हैं। जिस जिस वस्तु का निषेध, प्रतिषेध, अपलाप, अथवा निराकरण, निरास किया जाता है, उसका पहले अध्युमगम, अध्यारोप, विधान, संभावन संकल्प, अध्यास कर लिया जाता है। पहले यह माना जाता है कि उसका संभव है और तब उसकी वास्तवता का निषेध होता है। इसी से असत् पदार्थ पर सत्ता का मिथ्या आरोप दीख पड़ता है।
स्वतंत्रता में भाग
डॉ. भगवान दास ने देश के प्रति अपने कर्त्तव्यों को भी उसी भाव से निभाया। 1921 के 'सविनय अवज्ञा आन्दोलन' में भाग लेने पर वह गिरफ्तार होकर जेल गये। इसके बाद 'असहयोग आन्दोलन' में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाकर प्रमुख कांग्रेसी नेता के रूप में उभरे। शिक्षा शास्त्री तो वह थे ही, स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भी उभर कर सामने आये। असहयोग आन्दोलन के समय डॉ. भगवान दास काशी विश्वविद्यालय के कुलपति थे। उसी समय देश के भावी नेता श्री लालबहादुर शास्त्री भी वहां पर शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। इस समय वह कांग्रेस और गांधी जी से पूर्णत: जुड़ गये थे। 1922 में वाराणसी के म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के चुनावों में कांग्रेस को भारी विजय दिलायी और म्यूनिसिपल कमेटी के अध्यक्ष चुने गये। इस पद पर रहते हुए उन्होंने अनेक सुधार कार्य कराये। साथ ही वह अध्ययन और अध्यापन कार्य से भी जुड़े रहे, विशेष रूप से हिन्दी भाषा के उत्थान और विकास में उनका योगदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने महत्त्वपूर्ण कार्य किये। इन महत्त्वपूर्ण कार्यों के कारण उन्हें अनेक विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की मानद उपाधियों से अलंकृत किया गया। सन् 1935 के कौंसिल के चुनाव में वे कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए। कालांतर में वे सक्रिय राजनीति से दूर रहने लगे और भारतीय दर्शन और धर्म अध्ययन और लेखन कार्य में व्यस्त रहने लगे। इन विषयों में उनकी विद्वत्ता, प्रकांडता और ज्ञान से महान् भारतीय दार्शनिक श्री सर्वपल्ली राधाकृष्णन भी बहुत प्रभावित थे और डॉ. भगवान दास उनके लिए आदर्श व्यक्तित्व बने।
व्यक्तित्व
अपने जीवनकाल में ही अपार धन और सम्मान पाने के बाद भी डॉ. भगवान दास का जीवन भारतीय संस्कृति और महर्षियों की परम्परा का ही प्रतिनिधित्व करता है। वह गृहस्थ थे, फिर भी वह संयासियों की भांति साधारण खान पान और वेशभूषा में रहते थे। वह आजीवन प्रत्येक स्तर पर प्राचीन भारतीय संस्कृति के पुरोधा बने। सन् 1947 में जब देश स्वतंत्र हुआ, तब डॉ. भगवान दास की देशसेवा और विद्वत्ता को देखते हुए उनसे सरकार में महत्त्वपूर्ण पद संभालने का अनुरोध किया गया, किंतु प्रबल गाँधीवादी विचारों के डॉ. भगवान दास ने विनयपूर्वक अस्वीकार कर दर्शन, धर्म और शिक्षा के क्षेत्र को ही प्राथमिकता दी और वह आजीवन इसी क्षेत्र में सक्रिय रहे।
पुरस्कार
सन 1955 में भारत सरकार की ओर से तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने उन्हें भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित किया।
निधन
भारत रत्न मिलने के कुछ वर्षों बाद 18 सितम्बर 1958 में लगभग 90 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। आज भले ही डॉ. भगवान दास हमारे बीच नहीं हैं, किंतु भारतीय दर्शन, धर्म और शिक्षा पर किया गया कार्य सदैव हमारे साथ रहेगा।