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खान अब्दुल गफ्फार खान का जन्म पेशावर, पाकिस्तान में हुआ था। उनके परदादा आबेदुल्ला खान सत्यवादी होने के साथ ही साथ लड़ाकू स्वभाव के थे। पठानी कबीलियों के लिए और भारतीय आजादी के लिए उन्होंने बड़ी बड़ी लड़ाइयाँ लड़ी थी। आजादी की लड़ाई के लिए उन्हें प्राणदंड दिया गया था। वे जैसे बलशाली थे वैसे ही समझदार और चतुर भी। इसी प्रकार बादशाह खाँ के दादा सैफुल्ला खान भी लड़ाकू स्वभाव के थे। उन्होंने सारी जिंदगी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। जहाँ भी पठानों के ऊपर अंग्रेज हमला करते रहे, वहाँ सैफुल्ला खान मदद में जाते रहे।
आजादी की लड़ाई का यही सबक अब्दुल गफ्फार खान ने अपने दादा से सीखा था। उनके पिता बैराम खान का स्वभाव कुछ भिन्न था। वे शांत स्वभाव के थे और ईश्वरभक्ति में लीन रहा करते थे। उन्होंने अपने लड़के अब्दुल गफ्फार खान को शिक्षित बनाने के लिए मिशन स्कूल में भरती कराया यद्यपि पठानों ने उनका बड़ा विरोध किया। मिशनरी स्कूल की पढ़ाई समाप्त करने के पश्चात् वे अलीगढ़ गए किंतु वहाँ रहने की कठिनाई के कारण गाँव में ही रहना पसंद किया। गर्मी की छुट्टियाँ में खाली रहने पर समाजसेवा का कार्य करना उनका मुख्य काम था। शिक्षा समाप्त होने के बाद यह देशसेवा में लग गए।
1919 में फ़ौजी कानून लागू होने पर गफ्फार खा (Abdul Ghaffar Khan) को गिरफ्तार कर लिया गया | जेल में उनको देश के अन्य देशभक्तों के सम्पर्क में आने तथा सिख और हिन्दू धर्म ग्रंथो का अध्ययन करने का अवसर मिला | अब उनका कार्यक्षेत्र विस्तृत होता गया | गांधीजी के प्रभाव से उन्होंने अपने प्रदेश में “खुदाई खिदमतगार” संघठन बनाया और युद्धप्रिय पठानों को अहिंसा के मार्ग में लाने में सफलता पायी | इसी कारण वे “सीमांत गांधी” के नाम से भी प्रसिद्ध हुए | 1937 के चुनाव में उनके प्रभाव से पश्चिमोत्तर प्रांत में कांग्रेस की विजय प्राप्त हुयी और उनके भाई डा.खान साहब वहा के पहले मुख्यमंत्री बने |
अब्दुल गफ्फार खां (Abdul Ghaffar Khan) की गणना देश के चोटी के नेताओं में होती थी | लोग उन्हें आदर और स्नेहवश “बादशाह खान” या “बाचा खान” के नाम से सम्बोधित करते थे | वे कांग्रेस की निति निर्धारक कार्यसमिति के सदस्य रहे | जिन्ना की देश विभाजन की निति का उन्होंने सदा विरोध किया | देश के बंटवारे के समय उन्होंने कहा था “मुझे भेडियो के बीच डाल दिया गया है” | विभाजन के बाद जब उनका प्रदेश पाकिस्तान में सम्मिलित कर दिया गया तो बादशाह खा ने अलग “पखतुनिस्तान” की स्थापना के लिए आन्दोलन चलाया |
इसके लिए उन्हें अपने जीवन के लगभग 40 वर्ष पाकिस्तान की जेलों में बिताने पड़े | 1988 में जब उनका देहांत हुआ तो उनकी इच्छा का सम्मान करते हए उनका शव पाकिस्तान के बदले अफगानिस्तान की भूमि में दफनाया गया | उनकी देश सेवाओं के सम्मान में भारत सरकार ने अब्दुल गफ्फार खां (Abdul Ghaffar Khan) को भारत रत्न की उपाधि प्रदान की |
खुदाई खिदमतगार
पश्तूनों के उत्थान में संघर्षरत बादशाह खान एक ऐसे भारत की स्थापना चाहते थे जो आज़ाद और धर्मनिरपेक्ष हो। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए उन्होंने ‘खुदाई खिदमतगार’ नामक संगठन बनाया जिसे ‘सुर्ख पोश’ भी कहा गया। खुदाई खिदमतगार की स्थापना महात्मा गाँधी के अहिंसा और सत्याग्रह जैसे सिद्धान्तों से प्रेरित होकर की गयी थी।
बादशाह खान के करिश्माई नेतृत्व का कमाल था कि संगठन में लगभग 100000 सदस्य शामिल हो गए और उन्होंने शांतिपूर्ण तरीके से अंग्रेजी पुलिस और सेना का विरोध करना शुरू कर दिया। खुदाई खिदमतगारों ने हड़तालों, राजनैतिक संगठन और अहिंसात्मक प्रतिरोध के माध्यम से अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ सफलता हासिल की और ‘खईबर-पख्तुन्ख्वा’ में एक प्रमुख राजनैतिक शक्ति बन गये। बादशाह के भाई डॉ खान अब्दुल जब्बर खान ने संगठन के राजनैतिक खंड की जिम्मेदारी संभाली और 1920 के दशक के अंतिम सालों से लेकर सन 1947 तक प्रान्त के मुख्यमंत्री रहे।
किस्सा ख्वानी नरसंहार
1930 ई. के नमक सत्याग्रह के दौरान गफ्फार खान को 23 अप्रैल को गिरफ्तार कर लिया गया जिसके स्वरुप खुदाई खिदमतगारों का एक जत्था विरोध प्रदर्शन के लिए पेशावर के किस्सा ख्वानी बाज़ार में इकठ्ठा हुआ। अंग्रेजों ने निहत्थी और अहिंसात्मक भीड़ पर मशीनगनों से गोलियां चलाने का आदेश दिया जिसमे लगभग 200 -250 लोग मारे गए। इसी दौरान गढ़वाल राइफल रेजिमेंट के दो प्लाटूनों ने निहत्थी और अहिंसात्मक भीड़ पर गोलियां चलाने से इनकार कर दिया जिसके परिणामस्वरूप उनका कोर्ट मार्शल किया गया और कठोर सजा सुनाई गयी।
शांतिप्रिय
पेशावर में जब 1919 ई. में अंग्रेज़ों ने 'फ़ौजी क़ानून' (मार्शल लॉ) लगाया। अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान अंग्रेज़ों के सामने शांति का प्रस्ताव रखा, फिर भी उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया।
1930 ई. में सत्याग्रह आंदोलन करने पर वे पुन: जेल भेजे गए और उन्हें गुजरात (उस समय पंजाब का भाग) की जेल भेजा गया। वहाँ पंजाब के अन्य बंदियों से उनका परिचय हुआ। उन्होंने जेल में सिख गुरुओं के ग्रंथ पढ़े और गीता का अध्ययन किया।
हिंदू मुस्लिम एकता को ज़रूरी समझकर उन्होंनें गुजरात की जेल में गीता तथा क़ुरान की कक्षा लगायीं, जहाँ योग्य संस्कृतज्ञ और मौलवी संबंधित कक्षा को चलाते थे। उनकी संगति से सभी प्रभावित हुए और गीता, क़ुरान तथा गुरु ग्रंथ साहब आदि सभी ग्रंथों का अध्ययन सबने किया।
बादशाह ख़ान (ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान) आंदोलन भारत की आज़ादी के अहिंसक राष्ट्रीय आंदोलन का समर्थन करते थे और इन्होंने पख़्तूनों को राजनीतिक रूप से जागरूक बनाने का प्रयास किया।
1930 के दशक के उत्तरार्ध तक ग़फ़्फ़ार ख़ां महात्मा गांधी के निकटस्थ सलाहकारों में से एक हो गए और 1947 में भारत का विभाजन होने तक ख़ुदाई ख़िदमतगार ने सक्रिय रूप से कांग्रेस पार्टी का साथ दिया ।
इनके भाई डॉक्टर ख़ां साहब (1858-1958) भी गांधी के क़रीबी और कांग्रेसी आंदोलन के सहयोगी थे।
सन 1930 ई. के गाँधी-इरविन समझौते के बाद अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को छोड़ा गया और वे सामाजिक कार्यो में लग गए।
1937 के प्रांतीय चुनावों में कांग्रेस ने पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत की प्रांतीय विधानसभा में बहुमत प्राप्त किया। ख़ां साहब को पार्टी का नेता चुना गया और वह मुख्यमंत्री बने। 1942 ई. के अगस्त आंदोलन में वह गिरफ्तार किए गए और 1947 ई. में छूटे।