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9 भाई-बहनों के बीच सबसे बड़े नवाज़ुद्दीन का जन्म 19th May 1974 को U.P के मुज़फ्फरनगर डिस्ट्रिक्ट के एक छोटे से गाँव बुढ़ाना में हुआ था। यहीं उनका बचपन बीता, इंटरमीडिएट तक की पढाई भी इसी गाँव से की। बहुत से लोग सोचते हैं कि नवाज़ुद्दीन एक गरीब परिवार से हैं, लेकिन ऐसा नही है, वो एक well-off ज़मींदार किसानो की family से belong करते हैं। हालांकि, अपना करियर बनाते वक्त उन्होंने परिवार से कोई आर्थिक मदद नहीं ली और बहुत बुरे दिने देखे, जो ultimately उन्हें और strong बनाते गए। नवाज़ुद्दीन शुरू से ही अपने गाँव से निकल कर बाहर जाना चाहते थे, वजह थी कि वहां का माहौल पढाई-लिखाई के लिहाज़ से सही नहीं था।
नवाज़ुद्दीन ने इंटर तक की पढ़ाई गाँव से करने के बाद वो हरिद्वार चले गए, क्यूंकी गाँव मे पढ़ाई लिखाई का माहौल नही था, हरिद्वार मे उन्होने गुरुकुल कंगरी विश्वविद्यालया से अपनी केमिस्ट्री में बीएससी की पढाई पूरी की। इसके बाद वो वडोदरा, गुजरात में एक कम्पनी में बतौर केमिस्ट काम करने लगे। इस काम में उनका मन नहीं लगता था, लेकिन कुछ न कुछ करना था इसलिए करते जा रहे थे।
फिर एक दिन उनका एक दोस्त उन्हें एक फिल्म दिखाने के लिए ले गया। फिल्म उसे अच्छा लगा उसके बाद उन्हे एहसास हुआ की शायद वो इसी काम के लिए बने है। इस बारे मे उन्होने अपने दोस्त सलाह लिया, और दोस्त ने समझाया की एक्टर बनना है तो एक्टिंग सीखनी होगी।
नवाज़ुद्दीन उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के छोटे-से कस्बे बुढ़ाना के किसान परिवार से है. हरिद्वार की गुरुकुल कांगड़ी यूनिवर्सिटी से साइंस में ग्रेजुएशन किया है. लेकिन छोटे कस्बे की जिंदगी रास नहीं आई तो दिल्ली चला आया. जिंदगी चलाने का जरिया चाहिए था तो मैं चौकीदार तक का काम करने से पीछे नहीं हटा. लेकिन मेरे अंदर कुछ क्रिएटिव करने की भूख थी और कुछ कर दिखाने का जज्बा था. इसलिए मैंने दिल्ली के नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा में दाखिला ले लिया और 1996 में वहां से ग्रेजुएट होकर निकले.
दिल्ली में मैंने साक्षी थिएटर ग्रुप के साथ काम भी किया, जहां मुझे मनोज वाजपेयी और सौरभ शुक्ला जैसे कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला. लेकिन यहीं से असली संघर्ष की दास्तान शुरू हुई. इसके बाद मैं मुंबई चला आया और यहां लगातार रिजेक्शन का दौर जारी रहा. मेरे साथ मुंबई आए सभी दोस्त अपने घरों को लौट गए, लेकिन मैं डटा रहा. हताशा के इन दिनों में मुझे अपनी मम्मी की एक बात याद रही कि 12 साल में तो घूरे के दिन भी बदल जाते हैं बेटा तू तो इनसान है.
उनके टैलेंट को पह्चान्ने वाला कोई नहीं था, क्यूंकि वहां सिर्फ अच्छे दिखने वाले यानि सिर्फ outer appearance वालों को चांस मिलता था. और नवाज़ के पास वो खूबसूरती नहीं थी जिससे उनको कुछ बड़ा रोल करने को मिलता. इसलिए उन्होंने फिर फिल्मो में काम पाने की कोशिश की. जहाँ भी फिल्म की suiting चल रही होती थी नवाज़ वहां पहुच जाते थे और वहां काम की तलाश में रहते थे, कोई उनसे पूछता था की यहाँ क्या करने आये हो तो नवाज़ कहते थे मै एक्टर हूँ, उन्हें जवाब में यही मिलता था की दीखते तो नहीं हो. और उन्हें वहां से निकाल दिया जाता था, बार बार ना सुन सुन कर वो थक चुके थे, इतनी बार उन्हें मना किया गया था की वो कहते थे ना सुनने की आदत सी हो गयी है अब उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता.
लाज़मी है की अगर इंसान को उसके सपने पुरे होते हुए नहीं दीखता है तो वो frustrate हों जाता है, नवाज़ भी हो जाते थे. कई बार सोचते थे की सब कुछ छोड़ कर वापस अपने गाँव अपने माता पिता के पास चला जाऊं लेकिन फिर यही सोच कर रुक जाते की वहां जा कर करेंगे क्या उन्हें तो सिर्फ़ एक्टिंग करना ही अच्छा लगता था उसके अलावा उन्हें किसी और काम में मन नहीं लगता था. यही सोच कर फिर वो रुक जाते और फिर से काम की तालाश में निकल पड़ते.
एक्टिंग सीखने के लिए National School Of Drama (NSD), दुनिया की सबसे अच्छी जगहों में से एक है। नवाज़ुद्दीन ने उसमे एडमिशन लेने का सोचा पर उसके लिए पहले से कुछ plays का experience चाहिए था, इसलिए उन्होंने एक प्ले ग्रुप ज्वाइन कर लिया, जिसका नाम था Shakshi Theatre Group; यही वो ग्रुप था जिसमे उनके साथ मनोज बाजपेयी और सौरभ शुक्ला भी एक्टिंग के गुर सीख रहे थे। नवाज़ुद्दीन छोटे-मोटे नाटक करने लगे।
पर इन नाटकों से पैसे नहीं मिलते थे और दिल्ली में sustain करना था तो पैसे तो चाहिए थे। वे नौकरी तलाशने लगे। एक दिन उन्हें किसी public toilet की दीवार पर चिपका पोस्टर दिखा, लिखा था, “ security guards और watchman चाहिएं”। नवाज़ुद्दीन ने कांटेक्ट किया और उन्हें शाहदरा के पास एक toys factory में watchman की नौकरी मिल गयी।
कहते हैं जो लोग अपना सफर काफी नीचे से शुरू करते हैं, वे काफी ऊपर तक जाते हैं. तभी तो 1999 में शूल फिल्म में वेटर और सरफरोश में मुखबिर का रोल करने वाले नवाजुद्दीन सिद्दीकी ऐसे सितारे बन चुके हैं जिनकी कान फिल्म फेस्टिवल में एक साथ तीन-तीन फिल्में अपना जलवा बिखेरने जाती हैं तो उन्हें एक नहीं चार फिल्मों के लिए एक साथ राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया जाता है. 39 वर्षीय नवाजुद्दीन को 2012 की तलाश, गैंग्स ऑफ वासेपुर-1, 2 और कहानी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया है.
नवाज बताते हैं कि मुंबई में संघर्ष का यह ऐसा समय था कि वह एक समय खाना खाते तो दूसरे समय के लाले पड़ जाते. उन्होंने कई बार हार मानने की सोची और सब कुछ छोड़कर वापस गांव जाने का सोचा. लेकिन फिर याद आता कि वह गांव क्या मुंह लेकर जाएंगे. नवाजकहते हैं, मैं वापस जाता तो गांव में सब मज़ाक उड़ाते कि ‘बड़ा बन रहा था, हीरो बनने गया था, वापस आ गया.’ तो वापस गांव जाने का विचार मैंने छोड़ ही दिया था. मुझे कोई और काम आता भी नहीं था तो कुछ और कर भी नहीं सकते थे. लेकिन मैंने सोच लिया था कि अब मरना जीना मुंबई में ही होगा.
इस बीच फ़िल्मकार अनुराग कश्यप ने उनका एक नाटक दिल्ली में देखा और उन्हें अपनी फ़िल्म ब्लैक फ़्राईडे में काम दिया जिससे उन्हे अपनी क्षमता दिखाने का मौका मिला. उसके बाद फ़िराक, न्यूयॉर्क और देव डी जैसी फ़िल्मों में काम मिला. वह कहते हैं, समस्या ये हुई कि न्यूयॉर्क फ़िल्म के बाद कई फ़िल्मों के रोल के लिए बुलाया गया लेकिन सभी या तो गुंडे या आतंकवादी के रोल थे. तो मुझे कई रोल से इंकार करना पड़ा. फिर उन्हे पीपली लाईव में भी थोड़ा बेहतर रोल मिला और सुजोय घोष की ‘कहानी’ में उनका काम सराहा गया.
एक्टिंग का Experience लेने के लिये उन्होने ‘Shakshi Theatre Group’ के साथ काम भी किया, जहां उन्हे मनोज वाजपेयी और सौरभ शुक्ला जैसे कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला। लेकिन यहीं से असली संघर्ष की दास्तान शुरू हुई. अब उन्होंने सोचा कि ऐसी गरीबी में जीने के बजाय मुंबई में चलना बेहतर होगा। उसके बाद ये मुंबई चले आये और मुंबई में बहुत स्ट्रगल किया, जहाँ से शुरू हुआ रिजेक्शन का दौर। Mumbai में उन्होंने NSD के senior से मदद मांगी, वो नवाज़ को अपने साथ रखने के लिए राजी तो हो गए पर उन्होंने कहा की उनके साथ रहने के लिए नवाज़ को उनके लिए खाना बनाना होगा।
नवाज़ वो करने के लिए भी राज़ी हो गए आखिर उन्हें अपना सपना जो पूरा करना था। शुरुआत में उन्होंने TV serials में काम करने की कोशिश की, बहुत कोशिशों के बाद उन्हें serials में एक दो बार थोड़े समय के लिए छोटे रोल्स करने को तो मिला जहाँ उन्हें ज्यादातर notice नहीं किया जाता था, उसके बाद उनको ये realize हुआ की वहां उनकी सही जगह नहीं है। वो कभी कभी निराश होकर वापस अपने गाँव लौटने की सोचते थे लेकिन फिर उनको विचार आता कि वापस गाँव जाकर तो खेती करनी पड़ेगी और गाँव के लोग मजाक अलग उड़ायेंगे।
इनके पास इतने भी पैसे नहीं थे की room rent दे सके। ब्लैक फ्राइडे फिल्म के दौरान डायरेक्टर अनुराग कश्यप की नज़र नवाज़ पर पड़ी और उन्होंने नवाज़ से वादा किया की वो नवाज़ को लेकर एक फिल्म जरूर बनायंगे । नवाज़ कामयाबी के एकदम करीब थे लेकिन कामियाबी अभी तक सही मायनो में मिली नही थी लेकिन उनकी मेहनत और उनके हौसला कभी नही टुटा और फिर उन्हें एक फ़िल्म मिली ‘गैंग्स ऑफ़ वासेपुर’।
इस फ़िल्म ने नवाज़ की जिंदगी ही बदल दी. वो कहते हैं न ‘बिग ब्रेक’ स्ट्रगल पर ‘बिग ब्रेक’। फिर इसी साल नवाज़ की दूसरी फ़िल्म ‘मिस लवली’ भी रिलीज़ हुई इस फ़िल्म में नवाज़ लीड रोल में थे, इसके बाद तिग्मांशु धुलिया की फ़िल्म ‘पान सिंह तोमर’ ने नवाज़ को एक अलग पहचान दी , इसके बाद ‘पीपली लाइव और आई ‘कहानी’ फ़िल्म में नवाज़ की एक्टिंग को काफी तारीफ मिली। फिर क्या था नवाज़ुद्दीन सिद्दकी से बना फैजल खान ने कभी पीछे मुड़ कर नही देखा।
अब नवाज़ भीड़ का हिस्सा नही थे और न ही उनको किसी छोटे मोठे रोल के लिए जद्दोजहद करने की जरूरत थी . नवाज़ ने फ़िल्म इंडस्ट्री में खुद को साबित करने के लिए 14 साल लम्बा सफ़र तय किया। जिसमे वो कई बार गिरे कई बार टूटे लेकिन उनके हौसले बुलन्द थे जिन हौसलो ने आज उन्हें इस मुकाम पर पहुचा दिया की उनकी एक्टिंग का लोहा आज दुनिया मानती है.