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कलाकार

मजरूह सुल्‍तानपुरी जीवनी - Biography of Majrooh Sultanpuri in Hindi Jivani

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मजरुह सुल्तानपुरी हिन्दी फिल्मों के एक प्रसिद्ध गीतकार और प्रगतिशील आंदोलन के उर्दू के सबसे बड़े शायरों में से एक थे। उन्होंने अपनी रचनाओं के जरिए देश, समाज और साहित्य को नयी दिशा देने का काम किया। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा सुल्तानपुर जिले के गनपत सहाय कालेज में मजरुह सुल्तानपुरी ग़ज़ल के आइने में शीर्षक से मजरूह सुल्तानपुरी पर राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया। देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों के शिक्षाविदों ने इस सेमिनार में हिस्सा लिया और कहा कि वे ऐसी शख्सियत थे जिन्होंने उर्दू को एक नयी ऊंचाई दी है। लखनऊ विश्वविद्यालय की उर्दू विभागाध्यक्ष डॉ॰सीमा रिज़वी की अध्यक्षता व गनपत सहाय कालेज की उर्दू विभागाध्यक्ष डॉ॰जेबा महमूद के संयोजन में राष्ट्रीय सेमिनार को सम्बोधित करते हुए इलाहाबाद विश्वविद्यालय के उर्दू विभागाध्यक्ष प्रो॰अली अहमद फातिमी ने कहा मजरूह, सुल्तानपुर में पैदा हुए और उनके शायरी में यहां की झलक साफ मिलती है। वे इस देश के ऐसे तरक्की पसंद शायर थे जिनकी वजह से उर्दू को नया मुकाम हासिल हुआ। उनकी मशहूर पंक्तियों में 'मै अकेला ही चला था, जानिबे मंजिल मगर लोग पास आते गये और कारवां बनता गया' का जिक्र भी वक्ताओं ने किया। लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो॰मलिक जादा मंजूर अहमद ने कहा कि यूजीसी ने मजरूह पर राष्ट्रीय सेमिनार उनकी जन्मस्थली सुल्तानपुर में आयोजित करके एक नयी दिशा दी है।


जन्म 1 अक्टूबर 1919 को उत्तरप्रदेश में स्थित जिला सुल्तानपुर में हुआ था. इनका असली नाम था "असरार उल हसन खान" मगर दुनिया इन्हें मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से जानती हैं.


मजरूह साहब के पिता एक पुलिस उप-निरीक्षक थे. और उनकी इच्छा थी की अपने बेटे मजरूह सुल्तानपुरी को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाये और वे बहुत आगे बढे.


मजरूह सुल्तानपुरी ने अपनी शिक्षा तकमील उल तीब कॉलेज से ली और यूनानी पद्धति की मेडिकल की परीक्षा उर्तीण की. और इस परीक्षा के बाद एक हकीम के रूप में काम करने लगे..


लेकिन उनका मन तो बचपन से ही कही और लगा था. मजरूह सुल्तानपुरी को शेरो-शायरी से काफी लगाव था. और अक्सर वो मुशायरों में जाया करते थे. और उसका हिस्सा बनते थे. और इसी कारण उन्हें काफी नाम और शोहरत मिलने लगी. और वे अपना सारा ध्यान शेरो-शायरी और मुशायरों में लगाने लगे और इसी कारण उन्होंने मेडिकल की प्रैक्टिस बीच में ही छोड़ दी. बताते चले की इसी दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से होती हैं.. और उसके बाद लगातार मजरूह साहब शायरी की दुनिया में आगे बढ़ते रहे. उन्हें लोगो का काफी प्यार मिलाता रहा. उनके द्वारा लिखी शेरो शायरी लोगो के दिलो को छू जाती थी. और वो मुशायरो की शान बन गए..


सब्बो सिद्धकी इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित एक संस्था ने 1945 में एक मुशायरा का कार्यक्रम मुम्बई में रक्खा और इस कार्यक्रम का हिस्सा मजरूह सुल्तान पुरी भी बने. जब उन्होंने अपने शेर मुशायरे में पढ़े तब वही कार्यक्रम में बैठे मशहूर निर्माता ए.आर.कारदार उनकी शायरी सुनकर काफी प्रभावित हुए. और मजरूह साहब से मिले और एक प्रस्ताव रक्खा की आप हमारी फिल्मो के लिए गीत लिखे.


सफलता


'जिगर मुरादाबादी' ने मजरूह सुल्तानपुरी को तब सलाह दी कि फ़िल्मों के लिए गीत लिखना कोई बुरी बात नहीं है। गीत लिखने से मिलने वाली धन राशि में से कुछ पैसे वे अपने परिवार के खर्च के लिए भेज सकते हैं। जिगर मुरादाबादी की सलाह पर मजरूह सुल्तानपुरी फ़िल्म में गीत लिखने के लिए राजी हो गए। संगीतकार नौशाद ने मजरूह सुल्तानपुरी को एक धुन सुनाई और उनसे उस धुन पर एक गीत लिखने को कहा। मजरूह ने उस धुन पर 'गेसू बिखराए, बादल आए झूम के' गीत की रचना की। मजरूह के गीत लिखने के अंदाज से नौशाद काफ़ी प्रभावित हुए और उन्होंने उन्हें अपनी नई फ़िल्म 'शाहजहाँ' के लिए गीत लिखने की पेशकश कर दी। मजरूह ने वर्ष 1946 में आई फ़िल्म शाहजहाँ के लिए गीत 'जब दिल ही टूट गया' लिखा, जो बेहद लोकप्रिय हुआ। इसके बाद मजरूह सुल्तानपुरी और संगीतकार नौशाद की सुपरहिट जोड़ी ने 'अंदाज', 'साथी', 'पाकीजा', 'तांगेवाला', 'धरमकांटा' और 'गुड्डू' जैसी फ़िल्मों में एक साथ काम किया। फ़िल्म 'शाहजहाँ' के बाद महबूब ख़ान की 'अंदाज' और एस. फाजिल की 'मेहन्दी' जैसी फ़िल्मों में अपने रचित गीतों की सफलता के बाद मजरूह सुल्तानपुरी बतौर गीतकार फ़िल्म जगत् में अपनी पहचान बनाने में सफल हो गए।


जेलयात्रा


अपनी वामपंथी विचार धारा के कारण मजरूह सुल्तानपुरी को कई बार कठिनाइयों का भी सामना करना पड़ा। कम्युनिस्ट विचारों के कारण उन्हें जेल भी जाना पड़ा। मजरूह सुल्तानपुरी को सरकार ने सलाह दी कि अगर वे माफ़ी मांग लेते हैं, तो उन्हें जेल से आज़ाद कर दिया जाएगा, लेकिन मजरूह सुल्तानपुरी इस बात के लिए राजी नहीं हुए और उन्हें दो वर्ष के लिए जेल भेज दिया गया। जेल में रहने के कारण मजरूह सुल्तानपुरी के परिवार की माली हालत काफ़ी ख़राब हो गई।


मजरूह सुल्‍तानपुरी के बारे में


o पैदाइश की जगह, उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ दिले का निजामाबाद गांव. यहां उनके अब्बा पुलिस महकमे में तैनात थे. पुरखों की असल जमीन सुल्तानपुर में थी. बहरहाल, पैदाइश की तारीख 1 अक्टूबर, 1919.


o नौशाद से लेकर अनु मलिक और जतिन ललित, एआर रहमान और लेस्ली लेविस तक के साथ काम किया.


o 1965 में फिल्म 'दोस्ती' के गाने 'चाहूंगा मैं तुझे सांझ सवेरे' के लिए फिल्मफेयर अवॉर्ड जीता.


o 1993 में दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से नवाजे गए.


o बाप नहीं चाहते थे कि बेटा अंग्रेजी सीखे. इसलिए उन्हें मदरसे में भेज दिया गया. यहां उन्होंने अरबी और फारसी जबान सीखी. मजरूह के पिता पुलिस डिपार्टमेंट में काम किया करते थे.


o 1945 में मजरूह एक मुशायरे में शामिल होने के लिए बॉम्बे आए. उनकी गजलों और नज्मों को लोगों ने खूब पसंद किया. सुनने वालों में एक थे प्रॉड्यूसर एआर कारदार. मजरूह के बोल सुनकर कारदार पहुंच गए उनके गुरु जिगर मुरादाबादी के पास. सिफारिश के लिए. मगर मजरूह ने फिल्मों के लिए लिखने से इनकार कर दिया. अदबी तबके में उन दिनों इस तरह के काम को हल्का माना जाता था.


o 15. 24 मई, 2000 को उनका निधन हो गया. वजह बना न्यूमोनिया का अटैक. उस वक्त उनकी उम्र थी 80 बरस.