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कलाकार

अमृता शेरगिल जीवनी - Biography of Amrita Sher-Gil in Hindi Jivani

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        अमृता शेरगिल भारत के प्रसिद्ध चित्रकारों में से एक थीं. उनका जन्म बुडापेस्ट (हंगरी) में हुआ था. कला, संगीत व अभिनय बचपन से ही उनके साथी बन गए. २०वीं सदी की इस प्रतिभावान कलाकार को भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण ने १९७६ और १९७९ में भारत के नौ सर्वश्रेष्ठ कलाकारों में शामिल किया है. सिख पिता उमराव सिंह शेरगिल (संस्कृत-फारसी के विद्वान व नौकरशाह) और हंगरी मूल की यहूदी ओपेरा गायिका मां मेरी एंटोनी गोट्समन की यह संतान ८ वर्ष की आयु में पियानो-वायलिन बजाने के साथ-साथ कैनवस पर भी हाथ आजमाने लगी थी.


        अमृता शेरगिल मजीठा के उमराव सिंह शेरगिल की पुत्री थीं. उनका जन्म हंगरी की राजधानी बुडापेस्ट में सन 1913 में हुआ था. उनकी माता एक हंगिरियन महिला थीं. उमराव सिंह जब फ़्रांस गए तो उन्होंने अपनी पुत्री की शिक्षा के लिए पेरिस में प्रबंध किया. जब वे पेरिस के एक प्रसिद्ध आर्ट स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर रही थीं तो उनके मन में अपने कुछ सम्बन्धियों के कारण भारत आने की इच्छा जागृत हुई. 1921 में उन्होंने इटली के फ़्लोरेन्स नगर में चित्रकला की शिक्षा ली, वहाँ उन्होंने एक नग्न महिला का चित्रण किया था. इसके कारण उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया.


        वे अब तक अनुभव कर चुकी थीं कि उनके जीवन का वास्तविक ध्येय चित्रकार बनना ही है. इसलिए वे पेरिस में आकर पुन: शिक्षा प्राप्त करने लगीं. धीरे-धीरे उनके जीवन में हंगरी की चित्रकला का प्रभाव कम होता गया और उनका रुझान वास्तविकता की ओर बढ़ने लगा, जिसका प्रमाण उनके चित्रों में स्पष्ट दिखाई देता है. 'एक युवक सेब लिय हुए' और 'आलू छीलने वाला' आदि उनके प्रमुख चित्र हैं. भारत आने के बाद अमृता ने शिमला में अपना स्टूडियो प्रारम्भ किया और जिस प्रकार अपना स्वरूप बदलकर उसे भारतीय नारी का बनाया, उसी प्रकार ऐसे अन्यतम चित्रों की रचना की, जिसके कारण उनकी ख्याति बहुत जल्दी फैलने लगी.


        सन 1921 में अमृता शेरगिल का परिवार शिमला (समर हिल) आ गया. अमृता ने जल्द ही पियानो ओर वायलीन सीखना प्रारंभ कर दिया और मात्र 9 वर्ष की उम्र में ही अपनी बहन इंदिरा के साथ मिलकर उन्होंने शिमला के गैएटी थिएटर में संगीत कार्यक्रम पेश करना और नाटकों में भाग लेना प्रारंभ कर दिया. सन 1923 में अमृता की मां एंटोनी एक इतालवी मूर्तिकार के संपर्क में आयीं जो शिमला में ही रहता था और जब वो सन 1924 में इटली वापस जा रहा था तब एंटोनी अपनी बेटी अमृता को लेकर उसके साथ इटली चली गयी जहाँ उसका दाखिला फ्लोरेंस के एक आर्ट स्कूल में करा दिया.


        अमृता इस आर्ट स्कूल में ज्यादा समय तक नहीं रहीं और जल्द ही भारत लौट आई पर वहां पर उन्हें महान इतालवी चित्रकारों के कार्यों के बारे में जानकारी हासिल हुई. 16 वर्ष की उम्र में अमृता अपनी मां के साथ चित्रकारी सीखने पेरिस चली गयीं. पेरिस में उन्होंने कई प्रसिद्द कलाकारों जैसे पिएरे वैलंट और लुसिएँ साइमन और संस्थानों से चित्रकारी सीखी. अपने शिक्षक लुसिएँ साइमन, चित्रकार मित्रों और अपने प्रेमी बोरिस तेज़लिस्की के प्रभाव में आकर उन्होंने यूरोपिय चित्रकारों से प्रेरणा ली. उनकी शुरूआती पेंटिंग्स में यूरोपिय प्रभाव साफ़ झलकता है. सन 1932 में उन्होंने अपनी पहली सबसे महत्वपूर्ण कृति ‘यंग गर्ल्स’ प्रस्तुत की जिसके परिणामस्वरूप उन्हें सन 1933 में पेरिस के ग्रैंड सालों का एसोसिएट चुन लिया गया. यह सम्मान पाने वाली वे पहली एशियाई और सबसे कम उम्र की कलाकार थीं.


        जब वे पेरिस में अध्ययन कर रही थी तब उन्होंने एक पत्र लिखा था जिसमें उनकी भारत लौट आने की जिज्ञासा थी. उन्होंने स्पष्ट किया था कि चित्रकार होने के नाते वे अपना भाग्य अपने देश भारत में ही आज़माना चाहती हैं. १९३३ साल में पाश्चिमात्य होने के नाते बाईस साल की उम्र में उनकी यह सोच काफी मायने रखती थी. उन दिनों भारतीय स्त्रियों में व्यावसायिक शिक्षा लेने की प्रथा नहीं थीं, सिर्फ़ मज़दूरी करनेवाली स्त्रियाँ ही होती थी जो दास या नौकर की हैसियत से काम करती थीं.


        बहुत कम भारतीय स्त्रियों ने ऐसी व्यावसायिक शिक्षा अगर ली भी थी तो शिक्षा को व्यवसाय के रूप में अपनाया नहीं था. लेकिन अमृता अपनी अलग पहचान चित्रकार बनकर दिखाना चाहती थीं. उनके बीउक्स आर्टस् के एक अध्यापक के अनुसार उनका पैलेट पूर्वी रंगों के लिए ही बना था. यही वजह थी कि प्रतिभाशाली अमृता इतनी दूर भारत में घर बसाने को प्रोत्साहित हुई ऐसा उनके भतीजे विवन सुंदरम कहते हैं.


        शेरगिल का भारत लौट आने का मतलब उनके मजबूत उद्देश्य और कुछ कर दिखाने की आग को अंजाम देना था. भारत लौटने के बाद उन्होंने बिना एक क्षण गँवाए अपने उद्देश्य को हासिल करने के लिए काम में गति दे दी. पेरिस में रहते हुए वे शायद यूरोपीय चित्रकला और वर्तमान संस्कृति से अभी तक तीस साल पीछे थी लेकिन भारत आने पर १९३० के दशक में उन्हें महसूस हुआ कि वह तीस साल आगे चली गई हैं. १९६० के बाद ही भारतीय चित्रकारों ने शेरगिल जैसी प्रतिभा, आत्मविश्वास और निश्चय के परिचय देना प्रारंभ किया.


        सार्वजनिक विषयों पर अमृता शेर-गिल की अधिकांश कृतियों को एनजीएमए में रखा गया है, जहां इस तेजस्वी कलाकार के 100 से अधिक चित्र हैं. अमृता के पिता धनवान, जागीरदार सिख थे और उनकी माता हंगरी की थी. अमृता का जीवन यूरोप और भारत दोनों देशों में बीता. अमृता सुखमय और सभ्य प्रेरणादायक महिला होने के साथ-साथ असाधारण प्रतिभा की चित्रकार भी थीं.


        1929 में अमृता शेर-गिल ने पेरिस में इकोल डेस ब्यूक्स आर्टस से जुड़ गईं. उनकी चित्रकारी की कुशलता को स्वीकार किया गया और उसकी सराहना की गई. उन्हें पेरिस में कलाकारों का रूढिमुक्त जीवन पसंद आया. अब अमृता की चित्र शैली में यूरोपीय अभिव्यक्ति की झलक नजर आने लगी थी, जिसमें यूरोपीय यथार्थवाद और चित्रकार के रचनात्मक प्रयोग का समावेश था.


        1930 के दशक की शुरूआत में बनाए गए अनेक चित्र यूरोपीय शैली के है और इनमें अनेक अपने ही चित्र सम्मिलित हैं पेरिस में जीवन को चित्रित करने वाले कई चित्र हैं जिनमें नग्न अध्ययन, निर्जीव वस्तुओं के अध्ययनों के साथ-साथ चित्रों तथा साथी विद्यार्थियों के चित्र शामिल हैं. इनमें से निजी चित्र अधिक हैं इन चित्रों में कलाकार के विभिन्न मनोभावों की झलक की प्रस्तुति है- गंभीर चिंतनशील और प्रसन्नता साथ ही इनमें उनके व्यक्तित्व में आत्मसात अस्वताघा का पुट भी झलकता है.


        अमृता की कला का एक विरोधाभास यह था कि राजसी परिवार में जन्मी होने की वजह से उन्हें जीवन में कभी कोई कमी नहीं रही लेकिन उनके चित्र शिकायती ज्यादा नजर आते हैं. अपनी शर्तों पर जीने वाली अमृता की खासबात थी कि उनसे हर कोई प्रभावित हो जाता था. जहां उनके पति हंगरी के होने के कारण ब्रिटेन के खुले विरोधी थे. वहीं रौबदार व्यक्तित्व वाले पिता ब्रिटिश हुकूमत के करीबी थे. लेकिन इन सबके उलट अमृता हमेशा कांग्रेस की समर्थक रहीं.


        उस समय कांग्रेस की छवि गरीबों की हमदर्द पार्टी की थी और पार्टी का नेतृत्व जवाहरलाल नेहरू कर रहे थे. कहा जाता है कि नेहरू अमृता के खूबसूरती से खासे ‘प्रभावित’ थे और एक बार उन्होंने अमृता से अपनी तस्वीर बनाने का आग्रह भी किया था. लेकिन अपने आप में आकर्षक छवि वाले नेहरु कभी अमृता को इतना प्रभावित नहीं कर पाए कि वे उन्हें अपने कैनवास पर जगह दे देतीं. जिद ने ही अमृता से जुड़े रहस्यों को और गहरा कर दिया था. रहस्य चाहे उनके जीवन के हों, असमय हुई मृत्यु के या कैनवास पर उतारे रंगों के. अमृता शेरगिल अपने समय में बे-मोल थीं, अब बेशकीमती हैं.


        अमृता ने एक तरफ जहां बोझिल से भारतीय आम-जनजीवन को रंगों से जीवंत किया. वहीं पहली बार आम भारतीय महिलाओं को कैनवास पर लेकर आईं. 1939 में बनाए ‘रेस्टिंग (आराम) ’ ‘टू गर्ल (दो लड़कियां)’ तथा 1938 में बने ‘रेड वेरांदा (लाल बरामदा),’ ‘वुमन इन रेड (लाल कपड़े वाली औरत)’ चित्र जातीय व लैंगिक भेदभाव के चित्र हैं. कैनवास पर ये भारतीय महिलाएं यथार्थ के साथ अपनी सारी सुघड़ता, कामुकता और सारा सौंदर्य लेकर आईं. अमृता की दार्शनिक नजर का ही कमाल था कि पतली कमर और बड़े वक्षों वाली ये निर्वस्त्र महिलाएं कभी फूहड़ नहीं लगीं. अमृता के पहले राजा रवि वर्मा जिन महिलाओं को चित्रित कर चुके थे, वे देवी या फिर राजकुमारियां हुआ करती थीं.


        अपने चित्रों में कुछ कामुक अवस्था में महिलाओं की जो छवि राजा रवि वर्मा ने दिखाई थी उसके लिए उन्हें सामाजिक बहिष्कार तक झेलना पड़ गया था. सहज भारतीय सौंदर्य रचने के मामले में अमृता, राजा रवि वर्मा से आगे मानी जा सकती हैं. निर्धारित मानदंडों और अदृश्य बेड़ियों को तोड़ने की एक तड़प अमृता में बचपन से थी. भारतीय स्त्री को रचते हुए यह कितनी मुखर हो जाती थी, उनके चित्रों को देखकर महसूस किया जा सकता है.


        उन्होंने स्त्री को ऐसा भी रचा जैसी वो उस समय थी और वैसा भी जैसा अमृता देखना चाहती थीं - निर्बाध, स्वतंत्र. सन 1937 में लाहौर में एक कला प्रदर्शनी आयोजित हुई थी. यहां अमृता शेरगिल की 33 कलाकृतियां सम्मिलित हुईं. कला प्रदर्शनियों के बारे में ऐसा कम ही होता है लेकिन इस आयोजन को नियत समयावधि के बाद और कुछ दिनों के लिए बढ़ाना पड़ा.


        1940 में बनी ‘द स्ंिवग’ (झूला), ‘हल्दी ग्राईंडर’ (हल्दी पीसनेवाले), ‘रेस्टींग मदर’ (आराम कर रही मां), ‘वोमेन इन चारपाई’ (चारपाई पर औरतें), ‘ऐनशिऐंट स्टोरी टेलर’ (पुराना कथावाचक) में उनके चित्रों में अनेक विभाव जुड़कर एक निर्दाेश व ताजा संयोजन उभरकर आया. समतल रंगों के पीछे टटकापन है. अब उनकी कला में देखे गए यथार्थ के बजाए यथार्थ के प्रति निजी प्रतिक्रिया अभिव्यक्त हुई.


        रंग व रूपाकारों का एक अलग विरूपित यथार्थ व भावनाओं पर जोर चित्रों में दिखाई दिया. उन्होंने अब रेखाओं को बजाए रंग को महत्त्व दिया. 1939 में बनाए ‘रेस्टिंग’(आराम), ‘टू गर्ल’(दो लड़कियां) तथा 1938 में बने ‘रेड वैरांडा’(लाल बरांडा), ‘वोमेन इन रेड’ (लाल कपड़ेवाले औरत) चित्र जातीय व लैंगिक भेदभाव के चित्र हैं. अब चित्रों में श्यादपन छाने लगा… रूपक की तरह.