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संत पीपा जी जीवनी - Biography of sant pipa Ji Maharaj in Hindi Jivani

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संत पीपा जी कालीसिंध नदी पर बना प्राचीन गागरोंन दुर्ग संत पीपा की जन्म स्थली रहा है. इनका जन्म विक्रम संवत् 1417 चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को खिचीं राजवंश परिवार में हुआ था. वे गागरोंन राज्य के वीर साहसी एवं प्रजापालक शासक थे. शासक रहते हुए उन्होंने दिल्ली सल्तनत के सुलतान फिरोज तुगलक से संघर्ष करके विजय प्राप्त की, लेकिन युद्ध जनित उन्माद, हत्या, जमीन से जल तक रक्तपात को देखा तो उन्होंने सन्यासी होने का निर्णय ले लिया.


संत पीपा जी के पिता पूजा पाठ व भक्ति भावना में अधिक विश्वास रखते थे. पीपाजी की प्रजा भी नित्य आराधना करती थी. देवकृपा से राज्य में कभी भी अकाल व महामारी का प्रकोप नही हुआ. किसी शत्रु ने आक्रमण भी किया तो परास्त हुआ. राजगद्दी त्याग करने के बाद संत पीपा रामानन्द के शिष्य बने. रामानन्द के 12 शिष्यों में पीपा जी भी एक थे.


वे देश के महान समाज सुधारकों की श्रेणी में आते है. संत पीपा का जीवन व चरित्र महान था. इन्होने राजस्थान में भक्ति व समाज सुधार का अलख जगाया. संत पीपा ने अपने विचारों और कृतित्व से समाज सुधार का मार्ग प्रशस्त किया. पीपाजी निर्गुण विचारधारा के संत कवि एवं समाज सुधारक थे. पीपाजी ने भारत में चली आ रही चतुर वर्ण व्यवस्था में नवीन वर्ग, श्रमिक वर्ग सृजित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.


इनके द्वारा सृजित यह नवीन वर्ग ऐसा था जो हाथों से परिश्रम करता और मुख से ब्रह्म का उच्चारण करता था. समाज सुधार की दृष्टि से संत पीपाजी ने बाहरी आडम्बरों , कर्मकांडो एवं रूढ़ियों की कड़ी आलोचना की तथा बताया कि ईश्वर निर्गुण व निराकार है वह सर्वत्र व्याप्त है. मानव मन में ही सारी सिद्धिया व वस्तुएं व्याप्त है. ईश्वर या परम ब्रह्म की पहचान मन की अनुभूति से है.


रामानंद की सेवा में


दैवीय प्रेरणा से पीपाराव गुरु की तलाश में काशी के संतश्रेष्ठ जगतगुरु रामानन्दाचार्य जी की शरण में आ गए तथा गुरु आदेश पर कुए में कूदने को तैयार हो गए। रामानन्दाचार्य जी आपसे बहुत प्रभावित हुए व पीपाराव को गागरोन जाकर प्रजा सेवा करते हुए भक्ति करने व राजसी संत जीवन व्यतित करने का आदेश दिया। एक वर्ष पश्चात संत रामानन्दाचार्य जी अपनी शिष्य मंडली के साथ गागरोन पधारे व पीपाजी के करुण निवेदन पर आसाढ शुक्ल पूर्णिमा (गुरु पूर्णिमा) संवत १४१४ को दीक्षा देकर वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये नियुक्त किया। पीपाराव ने अपना सारा राजपाठ अपने भतीजे कल्याणराव को सौपकर गुरुआज्ञा से अपनी सबसे छोटी रानी सीताजी के साथ वैष्णव -धर्म प्रचार-यात्रा पर निकल पडे।


चमत्कार


पीपानन्दाचार्य जी का संपुर्ण जीवन चमत्कारों से भरा हुआ है। राजकाल में देवीय साक्षात्कार करने का चमत्कार प्रमुख है उसके बाद संयास काल में स्वर्ण द्वारिका में ७ दिनों का प्रवास, पीपावाव में रणछोडराय जी की प्रतिमाओं को निकालना व आकालग्रस्त इस में अन्नक्षेत्र चलाना, सिंह को अहिंसा का उपदेश देना, लाठियों को हरे बांस में बदलना, एक ही समय में पांच विभिन्न स्थानों पर उपस्थित होना, मृत तेली को जीवनदान देना, सीता जी का सिंहनी के रूप में आना आदि कई चमत्कार जनश्रुतियों में प्रचलित हैं।


रचना की संभाल


गुरु नानक देव जी ने आपकी रचना आपके पोते अनंतदास के पास से टोडा नगर में ही प्राप्त की। इस बात का प्रमाण अनंतदास द्वारा लिखित 'परचई' के पच्चीसवें प्रसंग से भी मिलता है। इस रचना को बाद में गुरु अर्जुन देव जी ने गुरु ग्रंथ साहिब में जगह दी।


पीपा जी भक्त बने


'देखो भक्त! आज से राज अहंकार नहीं होना चाहिए, राज बेशक करते रहना लेकिन हरि भजन का सिमरन मत छोड़ना| साधू-संतों की सेवा भी श्रद्धा से करना, निर्धन नि:सहाय को तंग मत करना| ऐसा ही प्यार जताना जब प्रजा सुखी होगी, हम तुम्हारे पास आएंगे, आपको आने की आवश्यकता नहीं| राम नाम का आंचल मत छोड़ना| 'राम नाम' ही सर्वोपरि है|


पीपा जी उठ गए| उनकी सोई सुई आत्मा जाग पड़ी| रामानंद जी से दीक्षा लेकर उनके शिष्य बन गए| पूर्ण उपदेश लेकर अपने शहर गगनौर की तरफ मुड़ पड़े| तदुपरांत उनकी काय ही पलट गई, स्वभाव बदल गया तथा कर्म बदला| हाथ में माला तथा खड़तालें पकड़ लीं, हरि भगवान का यश करने लगा|


पीपा जी अपने राज्य में आ पहुंचे| उन्होंने भक्ति करने के साथ साथ साधू-संतों की सेवा भी आरम्भ कर दी| गरीबों के लिए लंगर लगवा दिए तथा कीर्तन मण्डलियां कायम कर दीं| राज पाठ का कार्य मंत्रियों पर छोड़ दिया| सीतां जी के अलावा बाकी रानियों को राजमहल में खर्च देकर भक्ति करने के लिए कहा| ऐसे उनके भक्ति करने में कोई फर्क न पड़ा|


पर वह गुरु-दर्शन करने के लिए व्याकुल होने लगे| उनकी व्याकुलता असीम हो गई तो एक दिन रामानंद जी ने काशी में बैठे ही उनके मन की बात जान ली| उन्होंने हुक्म दिया कि वह गगनौर का दौरा करेंगे| उनके हुक्म पर उसी समय अमल हो गया| वह काशी से चल पड़े तथा उनके साथ कई शिष्य चल पड़े| एक मण्डली सहित वे गगनौर पहुंच गए|


संत पीपा जी ……………..


o =संत पीपा मध्यकालीन राजस्थान में भक्ति आन्दोलन के प्रमुख संतों में से एक थे। वे देवी दुर्गा के भक्त बन गए थे। बाद के समय में उन्होंने रामानंद जी को अपना गुरु मान लिया। फिर वे अपनी पत्नी सीता के साथ राजस्थान के तोडा नगर में एक मंदिर में रहने लगे थे।


o संत पीपा जी का जन्म 1426 ईसवी में राजस्थान में कोटा से 45 मील पूर्व दिशा में गगनौरगढ़ रियासत में हुआ था।


o इनके बचपन का नाम राजकुमार प्रतापसिंह था और लक्ष्मीवती इनकी माता थीं।


o पीपा जी ने रामानंद से दीक्षा लेकर राजस्थान में निर्गुण भक्ति परम्परा का सूत्रपात किया था।


o दर्जी समुदाय के लोग संत पीपा जी को आपना आराध्य देव मानते हैं।


o बाड़मेर ज़िले के समदड़ी कस्बे में संत पीपा का एक विशाल मंदिर बना हुआ है, जहाँ हर वर्ष विशाल मेला लगत है। इसके अतिरिक्त गागरोन (झालावाड़) एवं मसुरिया (जोधपुर) में भी इनकी स्मृति में मेलों का आयोजन होता है।


o संत पीपाजी ने "चिंतावानी जोग" नामक गुटका की रचना की थी, जिसका लिपि काल संवत 1868 दिया गया है।


o पीपा जी ने अपना अंतिम समय टोंक के टोडा गाँव में बिताया था और वहीं पर चैत्र माह की कृष्ण पक्ष नवमी को इनका निधन हुआ, जो आज भी 'पीपाजी की गुफ़ा' के नाम से प्रसिद्ध है।


o गुरु नानक देव ने इनकी रचना इनके पोते अनंतदास के पास से टोडा नगर में ही प्राप्त की थी। इस बात का प्रमाण अनंतदास द्वारा लिखित 'परचई' के पच्चीसवें प्रसंग से भी मिलता है। इस रचना को बाद में गुरु अर्जुन देव ने 'गुरु ग्रंथ साहिब' में जगह दी थी।