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सनातन गोस्वामी (1488-1558 ई.) चैतन्य महाप्रभु के प्रमुख शिष्य थे। उन्होंने 'गौड़ीय वैष्णव भक्ति सम्प्रदाय' के अनेकों ग्रन्थों की रचना की थी। अपने भाई रूप गोस्वामी सहित वृन्दावन के छ: प्रभावशाली गोस्वामियों में वे सबसे ज्येष्ठ थे।
सनातन गोस्वामी कर्णाट श्रेणीय पंचद्रविड़ भारद्वाज गोत्रीय यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। इनके पूर्वज कर्णाट राजवंश के थे और सर्वज्ञ के पुत्र रूपेश्वर बंगाल में आकर गंगातटस्थ बारीसाल में बस गए। इनके पौत्र मुकुंददेव बंगाल के नवाब के दरबार में राजकर्मचारी नियत हुए तथा गौड़ के पास रामकेलि ग्राम में रहने लगे। इनके पुत्र कुमारदेव तीन पुत्रों अमरदेव, संतोषदेव तथा वल्लभ को छोड़कर युवावस्था ही में परलोक सिधार गए जिससे मुकुंददेव ने तीनों पौत्रों का पालन कर उन्हें उचित शिक्षा दिलाई। इन्हीं तीनों को श्री चैतन्य महाप्रभु ने क्रमश: सनातन, रूप तथा अनुपम नाम दिया।
सनातन का जन्म सं. 1523 के लगभग हुआ था तथा संस्कृत के साथ फारसी अरबी की भी अच्छी शिक्षा पाई थी। सन् 1483 ई. में पितामह की मृत्यु पर अठारह वर्ष की अवस्था में यह उन्हीं के पद पर नियत किए गए और बड़ी योग्यता से कार्य सँभाल लिया। हुसेन शाह के समय में यह प्रधान मंत्री हो गए तथा इन्हें दरबारे खास उपाधि मिली। राजकार्य करते हुए भी तीनों भाई परम भक्त, विरक्त तथा सत्संग प्रेमी थे।
इन्होंने "कानाई नाट्यशाला" बनवाई थी, जिसमें कृष्णलीला सबंधी बहुत सी मूर्तियों का संग्रह था। श्री चैतन्य महाप्रभु का जब प्रकाश हुआ तब यह भी उनके दर्शन के लिए उतावले हुए, पर राजकार्य से छुट्टी नहीं मिली। इसलिए उन्हें पत्र लिखकर रामकेलि ग्राम में आने का आग्रह किया। श्री चैतन्य जब वृंदावन जाते समय रामकेलि ग्राम में आए तब इन तीनों भाइयों ने उनके दर्शन किए और सभी ने सांसारिक जंजाल से मुक्ति पाने का दृढ़ संकल्प किया।
शिक्षा तथा दीक्षा
सनातन गोस्वामी के पितामह मुकुन्ददेव दीर्घकाल से गौड़ राज्य में किसी उच्च पद पर आसीन थे। वे रामकेलि में रहते थे। उनके पुत्र श्रीकुमार देव बाकलाचन्द्र द्वीप में रहते थे। कुमारदेव के देहावसान के पश्चात् मुकुन्ददेव श्रीरूप-सनातन आदि को रामकेलि ले आये। उन्होंने रूप-सनातन की शिक्षा की सुव्यवस्था की।
सनातन गोस्वामी ने मंगलाचरण में केवल विद्यावाचस्पति के लिये 'गुरुन्' शब्द का प्रयोग किया है, जिससे स्पष्ट है कि वे उनके दीक्षा गुरु थे, और अन्य सब शिक्षा गुरु। 'गुरुन' शब्द बहुवचन होते हुए भी गौरवार्थ में बहुत बार एक वचन में प्रयुक्त होता है। यहाँ भी एक वचन में प्रयुक्त होकर विद्यावाचस्पति के साथ जुड़ा हुआ है। यदि विद्यावाचस्पति और सार्वभौम भट्टाचार्य दोनों दोनों से जुड़ा होता तो द्विवचन में प्रयुक्त किया गया होता।
वृन्दावन आगमन
दो महीने तक सनातन को अपने घनिष्ठ सान्निध्य में रखने के बाद और वैष्णव-सिद्धान्त में निष्णात करने के पश्चात चैतन्य महाप्रभु ने उनसे कहा- "सनातन, कुछ दिन पूर्व मैंने तुम्हारे भाई रूप को प्रयाग में कृष्ण रस का उपदेश कर और उसके प्रचार के लिए शक्ति संचार कर वृन्दावन भेजा है। तुम भी वृन्दावन जाओ। तुम्हें मैं सौंप रहा हूँ चार दायित्वपूर्ण कार्यो का भार। तुम वहाँ जाकर मथुरा मण्डल के लुप्त तीर्थों और लीला स्थलियों का उद्धार करो, शुद्ध भक्ति सिद्धान्त की स्थापना करो, कृष्ण-विग्रह प्रकट करो। और वैष्णव-स्मृति ग्रन्थ का संकलन कर वैष्णव सदाचार का प्रचार करो।" इसके पश्चात कंगालों के ठाकुर परम करुण गौरांग महाप्रभु ने दयाद्र चित्त से, करुणा विगलित स्वर में कहा- "इनके अतिरिक्त एक और भी महत्त्वपूर्ण दायित्व तुम्हें संभालना होगा। मेरे कथा-कंरगधारी कंगाल वैष्णव भक्त, जो वृन्दावन भजन करने जायेगें, उनकी देख-रेख भी तुम्हीं को करनी होगी।" सनातन ने कहा- "प्रभु! यदि मेरे द्वारा यह कार्य कराने हैं, तो मेरे मस्तक पर चरण रख शक्ति संचार करने की कृपा करें।" महाप्रभु ने सनातन के मस्तक पर अपना हस्त कमल रख उन्हें आर्शीवाद दिया। जब महाप्रभु की आज्ञा शिरोधार्य कर सनातन ब्रज जाने के लिये महाप्रभु से विदा हो रहे थे, तब उनके प्राण उनके चरणों से लिपटे थे। वे उन्हें जाने कब दे रहे थे? पैर आगे बढ़ते-बढ़ते पीछे लौट रहे थे। जाते-जाते वे अश्रुपूर्ण नेत्रों से बार-बार महाप्रभु की ओर देख रहे थे और मन ही मन कह रहे थे, न जाने कब फिर उनका भाग्योदय होगा। कब फिर करुणा और प्रेम की उस साक्षात मूर्ति के दर्शन कर वे विरहाग्नि से जर-जर अपने प्राणों को शीतल कर सकेगें। सनातन जब वृन्दावन की ओर चले उसी समय रूप और बल्लभ उनसे मार्ग में मिलने के उद्देश्य से वृन्दावन से प्रयाग की ओर चले। पर दोनों का मिलन न हुआ, क्योंकि सनातन गये राजपथ से, रूप और वल्लभ आये दूसरे पथ से गंगा के किनारे-किनारे।
वृन्दावन प्रत्यागमन एवं मदन गोपाल की सेवा
श्री सनातन गोस्वामी ने वृन्दावन आने के पश्चात सर्वप्रथम वृन्दावन देवी मंदिर की स्थापना की. इसके बाद वे महाप्रभु द्वारा दिये गये कार्य में लग गये. एक दिन मधुकरी के लिए श्री गोस्वामीजी मथुरा गये. श्री दामोदर चौबे के घर में श्री श्री मदन गोपाल की मूर्ति दिखी .उस मूर्ति को देखते ही उन्हें ऐसा लगा की उनके मन और प्राण चुरा लिए गये. अब उन्हें श्री मूर्ति की सेवा की इच्छा जाग्रत हुई. वे बार बार चौबे जी के घर जाते और मूर्ति को देखते. वह मूर्ति उन्हें बार बार अस्थिर कर देती. चौबे जी की पत्नी जितना ध्यान अपने पुत्र सदन का रखती थी उतना ही मदन का भी रखती थी. दोनों की बराबर सेवा करती थी. कहते हैं मदन गोपाल सदन के साथ उछल कूदा करते थे. श्री सनातन ने चौबे जी की पत्नी से कहा की तुम मदन गोपाल की सेवा बहुत मन से करती हो. वे तो ठीक है परन्तु वे भगवान् हैं, भगवान् की सेवा विशेष विधि विधान से होनी चाहिए. ये सुनकर ब्रजमाई ने कहा कि ठीक है मैं ध्यान रखूंगी.
अगली बार जब गोस्वामीजी उनके घर गये तो वह बोली, बाबा , मैंने आपके कहे अनुसार करने का प्रयास किया परन्तु मदन गोपाल को यह ठीक नही लगा. उन्होंने मुझे सपने में कहा की माँ तुम मुझमें और सदन में भेद करने लगी हो. सदन को तो अपने निकट रखती हो , मुझे इष्ट समझकर अपने से दूर कर देती हो. मुझे अच्छा नही लगता. अब तो गोस्वामी जी के आंसू रुकने का नाम नही ले रहे थे. उन्हें लगा की मैंने श्री मदन गोपाल को प्रेम वात्सल्य रस से कुछ समय दूर रखा.
रचना
सनातन गोस्वामी की रचनाएँ निम्न हैं-
श्रीकृष्णलीलास्तव
वैष्णवतोषिणी
श्री बृहत भागवतामृत
हरिभक्तिविलास तथा
भक्तिरसामृतसिंधु
भक्ति-साधना
सनातन तथा रूप गोस्वामी
सनातन गोस्वामी गौड़ दरबार में सुलतान के शिविर में रहते समय मुसलमानी वेश-भूषा में रहते, अरबी और फारसी में अनर्गल चैतन्य-चरितामृत में उल्लेख है कि रूप और सनातन जब रामकेलि महाप्रभु के दर्शन करने गये, उस समय नित्यानन्द और हरिदास ने, जो महाप्रभु के साथ थे, कहा- रूप और साकर आपके दर्शन को आये हैं। यहाँ सनातन को ही साकर (मल्लिक) कहा गया है।