Advertisement
१०१७ ईसवी सन् में रामानुज का जन्म दक्षिण भारत के तमिल नाडु प्रान्त में हुआ था। बचपन में उन्होंने कांची जाकर अपने गुरू यादव प्रकाश से वेदों की शिक्षा ली। रामानुजाचार्य आलवार सन्त यमुनाचार्य के प्रधान शिष्य थे। गुरु की इच्छानुसार रामानुज से तीन विशेष काम करने का संकल्प कराया गया था - ब्रह्मसूत्र, विष्णु सहस्रनाम और दिव्य प्रबन्धम् की टीका लिखना। उन्होंने गृहस्थ आश्रम त्याग कर श्रीरंगम् के यतिराज नामक संन्यासी से सन्यास की दीक्षा ली।
मैसूर के श्रीरंगम् से चलकर रामानुज शालिग्राम नामक स्थान पर रहने लगे। रामानुज ने उस क्षेत्र में बारह वर्ष तक वैष्णव धर्म का प्रचार किया। उसके बाद तो उन्होंने वैष्णव धर्म के प्रचार के लिये पूरे भारतवर्ष का ही भ्रमण किया। ११३७ ईसवी सन् में १२० वर्ष की आयु पाकर वे ब्रह्मलीन हुए।
उन्होंने यूँ तो कई ग्रन्थों की रचना की किन्तु ब्रह्मसूत्र के भाष्य पर लिखे उनके दो मूल ग्रन्थ सर्वाधिक लोकप्रिय हुए - श्रीभाष्यम् एवं वेदान्त संग्रहम्।
विशिष्टाद्वैत दर्शन
रामानुजाचार्य के दर्शन में सत्ता या परमसत् के सम्बन्ध में तीन स्तर माने गये हैं - ब्रह्म अर्थात् ईश्वर, चित् अर्थात् आत्म तत्व और अचित् अर्थात् प्रकृति तत्व।
वस्तुतः ये चित् अर्थात् आत्म तत्त्व तथा अचित् अर्थात् प्रकृति तत्त्व ब्रह्म या ईश्वर से पृथक नहीं है बल्कि ये विशिष्ट रूप से ब्रह्म के ही दो स्वरूप हैं एवं ब्रह्म या ईश्वर पर ही आधारित हैं। वस्तुत: यही रामनुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत का सिद्धान्त है।
जैसे शरीर एवं आत्मा पृथक नहीं हैं तथा आत्म के उद्देश्य की पूर्ति के लिये शरीर कार्य करता है उसी प्रकार ब्रह्म या ईश्वर से पृथक चित् एवं अचित् तत्त्व का कोई अस्तित्व नहीं हैं। वे ब्रह्म या ईश्वर का शरीर हैं तथा ब्रह्म या ईश्वर उनकी आत्मा सदृश्य हैं।
दृष्टिकोण
रामानुज चरम तत्व को अनन्त गुण सम्पन्न परम पुरुष के रूप में स्वीकार करते हैं। शंकर ने ब्रह्म या चरम तत्व के निर्गुण परक और सगुण परक, द्विविध वर्णन कर एक को पारमार्थिक दृष्टि और दूसरे को व्यावहारिक दृष्टि कहकर दोनों में वैचारिक भेद किया है। सगुण ब्रह्म की सत्ता औपाधिक तथा जागतिक प्रपंच तक ही सीमित मानी गई है। रामानुज इस वर्गीकरण के पूर्ण विरोधी हैं। उनके अनुसार ब्रह्म के सम्बन्ध में एक ही दृष्टिकोण हो सकता है और वह है सगुणता का। ब्रह्म में गुणों का बाहुल्य उनके स्वरूप के नानात्व का बोध नहीं कराता, क्योंकि पृथक् होते हुए भी समस्त गुण एक ही ब्रह्म में अस्तित्व रखते हैं और उसकी उद्वयता को हानि नहीं पहुँचाते।
वेदान्त दर्शन
जगत की तात्विक प्रस्थिति के बारे में वेदान्त दर्शन में मायावाद एवं लीलावाद की दो पृथक् एवं पूर्णत: विरोधी परम्पराएं रही हैं। इन दोनों परम्पराओं में मौलिक भेद सत्ता के प्रति दृष्टिकोण में है। दोनों यह मानते हैं कि सृष्टि प्रक्रिया का मूल सृजन की चाह है और उस चाह को चरमतत्व (ब्रह्म) पर आरोपित एवं मिथ्या माना गया है, जबकि लीलावाद में उसे ब्रह्म की स्वाभाविक शक्ति एवं वास्तविक माना गया है। दोनों के अनुसार जगत् ब्रह्म की ही अभिव्यक्ति है, पर एक में वह आभास मात्र है, जबकि दूसरे में वास्तविक। रामानुज मायावाद का प्रबल प्रतिवाद कर लीलावाद का समर्थन करते हुए जगत् के प्रति वास्तवलक्षी दृष्टिकोण अपनाते हैं। वे जगत् को उतना ही वास्तविक मानते हैं, जितना की ब्रह्म है। ब्रह्म जगत की सृष्टि का निमित्त एवं उपादान कारण है। किन्तु इस प्रक्रिया में ब्रह्म निर्विकार रहता है। क्रिया शक्ति उसकी सत्ता या स्वरूप में बाधा नहीं पहुँचाती।
प्रभाव
हेरोल्ड क्वॉर्वार्ड आरके न्यू नुजा का वर्णन करता है "श्री वैष्णव शास्त्र के संस्थापक व्याख्याता।" वेंडी डोनिगेर ने उसे "शायद भक्ति हिंदू धर्म का सबसे प्रभावशाली विचारक" कहा। जे.ए. बी। वैन बुइटेनन में कहा गया है कि "बौद्धिक बौद्धिक आधार" देकर, आरके न्यू नुजा अत्यधिक प्रभावशाली था, और उनके प्रयासों ने हिंदू धर्म के भीतर विभिन्न परंपराओं के भीतर प्रमुख शक्ति को भक्ति बनाया।
आधुनिक विद्वानों ने ईसाई धर्म में विद्वान थॉमस एक्विनास (1225 - 1274) के हिंदुत्व में आरए न्यू नुजा के महत्व की तुलना की है।
आर आई न्यू नुजा ने श्रीरंगम रंगनाथस्वामी मंदिर परिसर में सुधार किया, भारत के व्यापक दौर चला और अपने संगठन की पहुंच का विस्तार किया। मंदिर संगठन अपने विचारों और उसके शिष्यों का गढ़ बन गया। यहां यह है कि उन्होंने अपने प्रभावशाली विश्वविद्या दर्शन पाठ, श्री भाष्यम को समय की अवधि में लिखा है।
आरके न्यू नुजा ने न केवल विकसित सिद्धांतों और दार्शनिक कामों को प्रकाशित किया, उन्होंने विष्णु-लक्ष्मी पूजा के लिए मंदिरों का एक नेटवर्क बनाया। आरजेएमजू ने 11 वीं और 12 वीं शताब्दी के दौरान अपने दर्शन के लिए अध्ययन केंद्र स्थापित किए, जिसमें भारत के माध्यम से यात्रा कर युग, और भक्ति आंदोलन के प्रति समर्पित कवि संतों की ये प्रभावित पीढ़ी क्षेत्रीय परंपराओं ने जोर दिया कि उनकी यात्राओं, बहस और प्रवचन ने जैन और बौद्धों के मैसूर और डेक्कन क्षेत्र में वैष्णववाद को परिवर्तित किया।
श्री रामानुजाचार्य के अपने शिष्यों को दिए गए अन्तिम निर्देश : —
१) सदैव ऐसे भक्तों का संग करो जिनका चित्त भगवान् के श्री चरणों में लगा हो और अपने गुरु के समान उनकी सेवा करो ।
२) सदैव वेदादि शास्त्रों एवं महान वैष्णवों के शब्दों में पूर्ण विश्वास रखो ।
३) काम, क्रोध एवं लोभ जैसे शत्रुओं से सदैव सावधान रहो, अपनी इंद्रियों के दास न बनो ।
४) भगवान् श्री नारायण की पूजा करो और हरिनाम को एकमात्र आश्रय समझकर उसमे आनंद अनुभव करो ।
५) भगवान् के भक्तों की निष्ठापूर्वक सेवा करो क्योंकि परम भक्तों की सेवा से सर्वोच्च कृपा का लाभ अवश्य और अतिशीघ्र मिलता है ।