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नाम : राम मनोहर लोहिया.
जन्म : 23 मार्च 1910 अकबरपुर, उत्तरप्रदेश.
पिता : हीरा लाल.
माता : चंदा.
प्रारंभीक जीवन :
डॉ. राममनोहर लोहिया का जन्म 23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जनपद में अकबरपुर नामक स्थान में हुआ था। उनके पिताजी श्री हीरालाल पेशे से अध्यापक व हृदय से सच्चे राष्ट्रभक्त थे। ढाई वर्ष की आयु में ही उनकी माताजी (चन्दा देवी) का देहान्त हो गया।। उन्हें दादी के अलावा सरयूदेई, (परिवार की नाईन) ने पाला। टंडन पाठशाला में चौथी तक पढ़ाई करने के बाद विश्वेश्वरनाथ हाईस्कूल में दाखिल हुए। उनके पिताजी गाँधीजी के अनुयायी थे। जब वे गांधीजी से मिलने जाते तो राम मनोहर को भी अपने साथ ले जाया करते थे। इसके कारण गांधीजी के विराट व्यक्तित्व का उन पर गहरा असर हुआ। पिताजी के साथ 1918 में अहमदाबाद कांग्रेस अधिवेशन में पहली बार शामिल हुए।
वर्ष 1921 में वे पंडित जवाहर लाल नेहरू से पहली बार मिले और कुछ वर्षों तक उनकी देखरेख में कार्य करते रहे. लेकिन बाद में उन दोनों के बीच विभिन्न मुद्दों और राजनीतिक सिद्धांतों को लेकर टकराव हो गया. 18 साल की उम्र में वर्ष 1928 में युवा लोहिया ने ब्रिटिश सरकार द्वारा गठित ‘साइमन कमीशन’ का विरोध करने के लिए प्रदर्शन का आयोजन किया. उन्होंने अपनी मैट्रिक परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद इंटरमीडिएट में दाखिला बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कराया. उसके बाद उन्होंने वर्ष 1929 में कलकत्ता विश्वविद्यालय से अपनी स्नातक की पढ़ाई पूरी की और पीएच.डी. करने के लिए बर्लिन विश्वविद्यालय, जर्मनी, चले गए, जहाँ से उन्होंने वर्ष 1932 में इसे पूरा किया.
वहां उन्होंने शीघ्र ही जर्मन भाषा सीख लिया और उनको उत्कृष्ट शैक्षणिक प्रदर्शन के लिए वित्तीय सहायता भी मिली. स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने की उनकी बचपन से ही प्रबल इच्छा थी जो बड़े होने पर भी खत्म नहीं हुई। जब वे यूरोप में थे तो उन्होंने वहां एक क्लब बनाया जिसका नाम ‘असोसिएशन ऑफ़ यूरोपियन इंडियंस’ रखा. जिसका उद्देश्य यूरोपीय भारतीयों के अंदर भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति जागरूकता पैदा करना था. उन्होंने जिनेवा में ‘लीग ऑफ नेशन्स’ की सभा में भी भाग लिया, यद्यपि भारत का प्रतिनिधित्व ब्रिटिश राज्य के एक सहयोगी के रूप में बीकानेर के महाराजा द्वारा किया गया था, परन्तु लोहिया इसके अपवाद थे. उन्होंने दर्शक गैलरी से विरोध प्रदर्शन शुरू किया और बाद में अपने विरोध के कारणों को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने समाचार-पत्र और पत्रिकाओं के संपादकों को कई पत्र लिखे.
1930 जुलाई को लोहिया अग्रवाल समाज के कोष से पढ़ाई के लिए इंग्लैंड रवाना हुए। वहाँ से वे बर्लिन गए। विश्वविद्यालय के नियम के अनुसार उन्होंने प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. बर्नर जेम्बार्ट को अपना प्राध्यापक चुना। 3 महीने में जर्मन भाषा सीखी। 12 मार्च 1930 को गांधी जी ने दाण्डी यात्रा प्रारंभ की। जब नमक कानून तोड़ा गया तब पुलिस अत्याचार से पीड़ित होकर पिता हीरालाल जी ने लोहिया को विस्तृत पत्र लिखा। 23 मार्च को लाहौर में भगत सिंह को फांसी दिए जाने के विरोध में लीग ऑफ नेशन्स की बैठक में बर्लिन में पहुंचकर सीटी बजाकर दर्शक दीर्घा से विरोध प्रकट किया। सभागृह से उन्हें निकाल दिया गया। भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे बीकानेर के महाराजा द्वारा प्रतिनिधित्व किए जाने पर लोहिया ने रूमानिया की प्रतिनिधि को खुली चिट्ठी लिखकर उसे अखबारों में छपवाकर उसकी कॉपी बैठक में बंटवाई।
बम्बई से लोहिया वाराणसी लौट आए। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में इण्टर का अध्ययन शुरू कर दिया। काशी उस समय राष्ट्रीय शिक्षा का गढ़ समझा जाता था। सन् 1927 ई. में वहाँ से उन्होंने इण्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की। इण्टर पास करने के बाद सन् 1927 में लोहिया कलकत्ता आ गए। उन्होंने सेंट जेवियर्स तथा स्काटिश चर्च जैसे ख्यातिनामा महाविद्यालय को छोड़कर विद्यासागर महाविद्यालय में प्रवेश लिया था, जो उस समय "भेंड़ों की सराय" के नाम से जाना जाता था। लेकिन इस कॉलेज के प्राचार्य राष्ट्रीय विचारधारा से सम्बद्ध थे और लोहिया राष्ट्रीय विचारधारा के पूर्णत: समर्थक थे। लोहिया का अंग्रेज़ी भाषा पर ख़ासा अधिकार था। मित्रों पर ख़र्च करने के वे बड़े शौक़ीन थे। इससे उन्हें आन्तरिक प्रसन्नता की अनुभूति प्राप्त होती थी और उनका चित्त संतोष प्राप्त करता था। दूसरी तरफ़ उनके इतिहास प्रेम की परिणति सिनेमा देखना, पुस्तकें ख़रीदना और उपन्यास पढ़ने में हो गई थी।
डॉ. लोहिया के मन में स्वतंत्र देश का स्वाभिमान जाग उठा था। वे शिक्षा प्राप्त करने की अपेक्षा सम्मान के प्रति ज़्यादा सजग हो उठे थे। उनमें इसके साथ अपने देश को आज़ाद कराने की बात गहरे पैठती गई थी। वे देश की आज़ादी के प्रतिबद्ध हो चुके थे। इन्हीं कारणों से लोहिया बर्लिन के लिए रवाना हो गए। वहाँ उन्होंने बर्लिन के हुम्बोल्ट विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। विश्वविख्यात अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर बर्नर जोम्बार्ट उसी विश्वविद्यालय में थे। लोहिया ने उनको ही अपना निर्देशक तथा परीक्षक चुना।
भारतीय इतिहास, समाजव्यवस्था, राजनीति विविध सिध्दांत इनका विश्लेषण करने वाले बहोतसी किताबे लोहीया इन्होंने लिखी। इन किताबों में ‘मार्क्स अॅड सोशॅलिझम’, ‘कास्ट – सिस्टिम’, ‘गिल्टी में ऑफ इंडियाज पार्टिशन’, ‘व्हिल ऑफ हिस्टरी’ इन अंग्रेजी किताबो का भी समावेश होता है। वैसेही ‘हिदद बनाम हिंदु’, ‘भारतीय विभाजन के दोषी’, ‘इतिहास चक्र’, ‘राम – कृष्ण – शिव’, ‘लोकसभा में लोहीया’ इनकी हिंदी किताबे प्रसिध्द है। उनके लिखाण के मराठी अनुदान भी हुये है उसमे ‘समाजवाद काळा – गोरा’, ‘मार्क्स नंतरचे अर्थशास्त्र’, ‘अंतहीन यात्रा’, ‘भारतीय फाळनीचे गुन्हेगार’ इन किताबो का समावेश होता है।
जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया मतभेद :
समाजवादी आन्दोलन का यह दुर्भाग्य रहा कि जय प्रकाश नारायण और राम लोहिया के बीच मतभेदों के कारण दोनों का व्यक्तित्व व गुण परस्पर पूरक होते हुये भी आपसी सहयोग का सिलसिला टूट गया. कई लोग मानते थे कि राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की विचारधारा तो एक थी लेकिन उनके बीच जोड़ने वाली कड़ी गुम थी. आजादी से पहले इस कड़ी का रोल गांधीजी ने अच्छी तरह निभाया लेकिन उनकी मौत के बाद दूसरा कोई ना था. जिस काम को राम मनोहर लोहिया जेपी के कंधों पर डालना चाहते थे उसी काम को बाद में खुद जेपी ने ही शुरू किया. अगर राम मनोहर लोहिया के साथ जयप्रकाश नारायण ने सही दिशा में कार्य किया होता तो कांग्रेस की सत्ता 1967 में ही उलट जाती. पर जब जय प्रकाश ने यह काम संभाला तब तक समाजवादी आंदोलन बेहद कमजोर हो चुका था.
उन्होंने एक साथ सात क्रांतियों का आह्वान किया :
• नर-नारी की समानता के लिए,
• चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के खिलाफ,
• संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के खिलाफ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए,
• परदेसी गुलामी के खिलाफ और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक-राज के लिए,
• निजी पूँजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए,
• निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ और लोकतंत्री पद्धति के लिए,
• अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ और सत्याग्रह के लिये।
राजनीतिक कर्मयोगी के रूप में उनकी देन का मूल्याकन अभी सम्भव नहीं है। शायद उसका अभी समय भी नहीं आया है, परन्तु जहाँ तक उनके विचारों व सिद्धान्तों की बात है, उनके साथ भी वही हुआ, जो विश्व की लगभग सभी महान प्रतिभाओं के साथ होता चला आया है। ऐसे लोग, जो भी विचार और कल्पनाएँ पेश करते हैं, साधारण लोगों में उनके महत्त्व का प्रचार व ज्ञान होने में समय लगता ही है, परन्तु आश्चर्य होता है, जब समकालीन राजनीतिक व विचारक भी बहुधा उनके विचारों का सही मूल्यांकन सही समय पर नहीं कर पाते और बाद में पछतावे की बारी आती है।
उदाहरण के रूप में यदि सन् 1954 में लोहिया के कहने पर केरल के समाजवादी मन्त्रिमण्डल ने इस्तीफा दे दिया होता तो आज इस देश में समाजवादी आन्दोलन तो आदर्श बनता ही, साथ ही, दुनिया में भी एक नए आदर्श का निर्माण हुआ होता। इस तरह के अनेक अवसर पाए, जब लोहिया के बहुतेरे निकटतम साथी भी लोहिया द्वारा उठाए गए महत्त्वपूर्ण सवालों का मर्म नहीं समझ सके और चूके और पछताए।
1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन के दौरान वे भूमिगत हो गये और उन्होंने ”कांग्रेस रेडियो” नामक गुप्त रेडियो की स्थापना और संचालन भी किया, जिसे उन्होंने कलकत्ता और बम्बई से गुप्त रूप से चालू रखा । 94 दिनों तक उन्होंने इसके द्वारा उत्तेजक भाषणों का प्रसारण भी किया । अंग्रेज सरकार उन्हें पकड़ना चाहती थी, इसके पहले ही वे नेपाल भाग गये, जहां जयप्रकाशजी के साथ उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया । वहां से फरार होकर वे भारत वापस आ गये ।
20 मई 1994 को अंग्रेज सरकार ने उन पर अमानवीय अत्याचार किये । बाद में अंग्रेज सरकार ने उन्हें आगरा जेल में डाल दिया । 11 अप्रैल 1946 को अंग्रेज सरकार ने लोहिया और जयप्रकाश को छोड़ दिया । इसके बाद उन्होंने गोवा की आजादी के लिए आन्दोलन छेड़ा । 28 सितम्बर से 8 अक्टूबर 1946 तक गोवा सरकार ने उन्हें कैद में रखा । उनकी समाजवादी विचारधारा ऐसी थी कि नेहरूजी से मतभेद होने पर उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया ।
राम मनोहर लोहिया और जय प्रकाश नारायण का व्यक्तित्व भी बेहद विचारणीय है. इतिहासकारों का मानना है कि जय प्रकाश अति सद्भाव से ओत-प्रोत थे और बोलचाल में बेहद नरम थे. यूं तो लोहिया की तरह उनमें भी सत्ता-पिपासा लेश मात्र नहीं थी, मगर उनके विचारों में स्पष्टता की कमी थे. वह अपने आसपास के लोगों से बड़ी जल्दी प्रभावित हो जाते थे. विवादस्पद प्रश्न पर स्पष्ट राय देने तथा उस पर अड़े रहने में जय प्रकाश को हिचक होती थी. इतिहास भी साक्षी है कि किसान मजदूर प्रजा पार्टी के साथ विलीनीकरण की समस्या हो या कांग्रेस के साथ सहयोग का विवाद जय प्रकाश अकसर ढुलमुल नीति अपनाते थे और यही वजह रही कि लोहिया को उनसे नाराजगी थी.
म्रुत्यु :
30 सितम्बर, 1967 को लोहिया को नई दिल्ली के विलिंग्डन अस्पताल, अब जिसे लोहिया अस्पताल कहा जाता है, में पौरुष ग्रंथि के आपरेशन के लिए भर्ती किया गया जहाँ 12 अक्टूबर 1967 को उनका देहांत 57 वर्ष की आयु में हो गया। कश्मीर समस्या हो, गरीबी, असमानता अथवा आर्थिक मंदी, इन तमाम मुद्दों पर राम मनोहर लोहिया का चिंतन और सोच स्पष्ट थी। कई लोग राम मनोहर लोहिया को राजनीतिज्ञ, धर्मगुरु, दार्शनिक और राजनीतिक कार्यकर्ता मानते है। डॉ. लोहिया की विरासत और विचारधारा अत्यंत प्रखर और प्रभावशाली होने के बावजूद आज के राजनीतिक दौर में देश के जनजीवन पर अपना अपेक्षित प्रभाव क़ायम रखने में नाकाम साबित हुई। उनके अनुयायी उनकी तरह विचार और आचरण के अद्वैत को कदापि क़ायम नहीं रख सके