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लेखक

पांडुरंग वामन काणे जीवनी - Biography of Pandurang Vaman Kane in Hindi Jivani

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पांडुरंग वामन काणे (७ मई १८८०, दापोली, रत्नागिरि - १९७२) संस्कृत के एक विद्वान्‌ एवं प्राच्यविद्याविशारद थे। उन्हें १९६३ में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।


काणे ने अपने विद्यार्थी जीवन के दौरान संस्कृत में नैपुण्य एवं विशेषता के लिए सात स्वर्णपदक प्राप्त किए और संस्कृत में एम.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की। पश्चात्‌ बंबई विश्वविद्यालय से एल.एल.एम. की उपाधि प्राप्त की। इसी विश्वविद्यालय ने आगे चलकर आपको साहित्य में सम्मानित डाक्टर (डी. लिट्.) की उपाधि दी। भारत सरकार की ओर से आपको 'महामहोपाध्याय' की उपाधि से विभूषित किया गया। उत्तररामचरित (1913 ई.), कादंबरी (2 भाग, 1911 तथा 1918), हर्षचरित (2 भाग, 1918 तथा 1921), हिंदुओं के रीतिरिवाज तथा आधुनिक विधि (3 भाग, 1944), संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास (1951) तथा धर्मशास्त्र का इतिहास (4 भाग, 1930-1953 ई.) इत्यादि आपकी अंग्रेजी में लिखित कृतियाँ हैं।


डॉ॰ काणे अपने लंबे जीवनकाल में समय-समय पर उच्च न्यायालय, बंबई में अभिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय, दिल्ली में वरिष्ठ अधिवक्ता, एलफ़िंस्टन कालेज, बंबई में संस्कृत विभाग के प्राचार्य, बंबई विश्वविद्यालय के उपकुलपति, रायल एशियाटिक सोसाइटी (बंबई शाखा) के फ़ेलो तथा उपाध्यक्ष, लंदन स्कूल ऑव ओरयिंटल ऐंड अफ्ऱीकन स्टडीज़ के फ़ेलो, रार्ष्टीय शोध प्राध्यापक तथा सन्‌ 1953 से 1949 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। पेरिस, इस्तंबूल तथा कैंब्रिज में आयोजित प्राच्यविज्ञ सम्मेलनों में आपने भारत का प्रतिनिधित्व किया। भंडारकर ओरयंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना से भी आप काफी समय तक संबद्ध रहे।


डॉ॰ काणे अपने लंबे जीवनकाल में समय-समय पर उच्च न्यायालय, बंबई में अभिवक्ता, सर्वोच्च न्यायालय, दिल्ली में वरिष्ठ अधिवक्ता, एलफ़िंस्टन कालेज, बंबई में संस्कृत विभाग के प्राचार्य, बंबई विश्वविद्यालय के उपकुलपति, रायल एशियाटिक सोसाइटी (बंबई शाखा) के फ़ेलो तथा उपाध्यक्ष, लंदन स्कूल ऑव ओरयिंटल ऐंड अफ्ऱीकन स्टडीज़ के फ़ेलो, रार्ष्टीय शोध प्राध्यापक तथा सन्‌ 1953 से 1949 तक राज्यसभा के मनोनीत सदस्य रहे। पेरिस, इस्तंबूल तथा कैंब्रिज में आयोजित प्राच्यविज्ञ सम्मेलनों में आपने भारत का प्रतिनिधित्व किया। भंडारकर ओरयंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट, पूना से भी आप काफी समय तक संबद्ध रहे।


कार्यक्षेत्र


वर्ष 1907 में उन्हें मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज में संस्कृत के मुख्य अध्यापक के रूप में नियुक्त किया गया। यह पद उनके शोध कार्यों के अनुकूल था। इसी वर्ष उन्होंने 'प्राचीन भारतीय साहित्य' पर अपना एक अन्य शोध कार्य पूर्ण किया और उन्हें पुन: 'वी.एन.मॉडलिंग स्वर्ण पदक' से सम्मानित किया गया। वर्ष 1908 में डॉ. काणे ने एल.एल.बी. (वकालत) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। सन् 1909 में जब वे एलफिंस्टन कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक के पद पर थे, वहाँ पर अपनी योग्यता और प्रतिभा की अनहोनी होती देख उन्होंने त्यागपत्र देकर वकालत प्रारम्भ की। वकालत के साथ साथ वे संस्कृत भाषा और प्राचीन भारतीय संस्कृति पर शोध कार्य करते रहे और इन विषयों से सम्बन्धित व्याख्यान भी निरंतर देते रहे।


योगदान


पांडुरंग वामन काणे का सबसे बड़ा योगदान उनका विपुल साहित्य है, जिसकी रचना में उन्होंने अपना महत्त्वपूर्ण जीवन लगाया। वे अपने महान् ग्रंथों - 'साहित्यशास्त्र' और 'धर्मशास्त्र' पर 1906 ई. से कार्य कर रहे थे। इनमें 'धर्मशास्त्र का इतिहास' सबसे महत्त्वपूर्ण और प्रसिद्ध है। पाँच भागों में प्रकाशित बड़े आकार के 6500 पृष्ठों का यह ग्रंथ भारतीय धर्मशास्त्र का विश्वकोश है। इसमें ईस्वी पूर्व 600 से लेकर 1800 ई. तक की भारत की विभिन्न धार्मिक प्रवृत्तियों का प्रामाणिक विवेचन प्रस्तुत किया गया है। हिन्दू विधि और आचार विचार संबंधी उनका कुल प्रकाशित साहित्य 20,000 पृष्ठों से अधिक का है।


प्रसिद्ध कृतियां


डा। केन ने अंग्रेजी में अपनी महान शख्सियत के लिए प्रसिद्ध है, भारत का इतिहास- धर्म, उपशीर्षक प्राचीन और मध्यकालीन धर्म और भारत में सिविल कानून। इस काम ने शताब्दियों से संकलित कई ग्रंथों और पांडुलिपियों को देखकर प्राचीन और मध्यकालीन भारत में आचार संहिता के विकास की खोज की। यह पांच खंडों में प्रकाशित हुआ था; 1 वॉल्यूम 1 9 30 में और 1 9 62 में आखिरी बार प्रकाशित हुआ था। यह 6,500 से अधिक पृष्ठों तक चलता है। डॉ। केन ने प्रतिष्ठित संस्थानों जैसे एशियाटिक सोसाइटी ऑफ मुंबई और भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट जैसे अन्य संस्थानों में उपलब्ध संसाधनों का इस्तेमाल किया। यह काम अपने विस्तार और गहराई के लिए जाना जाता है - जैसे महाभारत, पुराण और चाणक्य जैसे विविध विषयों जैसे कि पहले अस्पष्ट स्रोतों के संदर्भ शामिल हैं। काम में समृद्धि का श्रेय उनके संस्कृत के गहन ज्ञान के कारण होता है। माना जाता है कि उनकी सफलता उनको deifying के बजाय ग्रंथों के अपने उद्देश्य के अध्ययन का एक परिणाम माना जाता है।


केन ने पुस्तक व्य्यासहरेखा लिखा था और इस पुस्तक के लिए धर्म के इतिहास पर एक प्रारंभिक मार्ग लिखने की प्रक्रिया में था ताकि पाठक को किताब के विषय के अलावा एक संपूर्ण विचार मिलेगा। एक बात एक और के लिए नेतृत्व किया और इस परियोजना के प्रमुख काम में snowballed है कि यह है। वही, वह यह कहने में स्पष्ट था कि "धर्म" शब्द का अंग्रेजी समानार्थ करना मुश्किल है। अंग्रेजी, संस्कृत और मराठी की तीन भाषाओं में लेखन के रूप में उनका उत्पादन लगभग 15,000 पृष्ठों में फैला है।