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सराभा, पंजाब के लुधियाना ज़िले का एक चर्चित गांव है। लुधियाना शहर से यह करीब पंद्रह मील की दूरी पर स्थित है। गांव बसाने वाले रामा व सद्दा दो भाई थे। गांव में तीन पत्तियां हैं-सद्दा पत्ती, रामा पत्ती व अराइयां पत्ती। सराभा गांव करीब तीन सौ वर्ष पुराना है और १९४७ से पहले इसकी आबादी दो हज़ार के करीब थी, जिसमें सात-आठ सौ मुसलमान भी थे। इस समय गांव की आबादी चार हज़ार के करीब है।
कर्तार सिंह का जन्म २४ मई १८९६ को माता साहिब कौर की कोख से हुआ। उनके पिता मंगल सिंह का कर्तार सिंह के बचपन में ही निधन हो गया था। कर्तार सिंह की एक छोटी बहन धन्न कौर भी थी। दोनों बहन-भाइयों का पालन-पोषण दादा बदन सिंह ने किया। कर्तार सिंह के तीन चाचा-बिशन सिंह, वीर सिंह व बख्शीश सिंह ऊंची सरकारी पदवियों पर काम कर रहे थे। कर्तार सिंह ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना के स्कूलों में हासिल की। बाद में उसे उड़ीसा में अपने चाचा के पास जाना पड़ा। उड़ीसा उन दिनों बंगाल प्रांत का हिस्सा था, जो राजनीतिक रूप से अधिक सचेत था। वहां के माहौल में सराभा ने स्कूली शिक्षा के साथ अन्य ज्ञानवर्धक पुस्तकें पढ़ना भी शुरू किया। दसवीं कक्षा पास करने के उपरांत उसके परिवार ने उच्च शिक्षा प्रदान करने के लिए उसे अमेरिका भेजने का निर्णय लिया और १ जनवरी १९१२ को सराभा ने अमेरिका की धरती पर पांव रखा। उस समय उसकी आयु पंद्रह वर्ष से कुछ महीने ही अधिक थी। इस उम्र में सराभा ने उड़ीसा के रेवनशा कॉलेज से ग्यारहवीं की परीक्षा पास कर ली थी। सराभा गांव का रुलिया सिंह 1908 में ही अमेरिका पहुंच गया था और अमेरिका-प्रवास के प्रारंभिक दिनों में सराभा अपने गांव के रुलिया सिंह के पास ही रहा।
क्रांतिकारी बनने का सफ़र
बर्कले विश्वविद्यालय में तकरीबन 30 विद्यार्थी भारतीय थे, जिनमें से अधिकतर बंगाली और पंजाबी थे. 1913 में लाला हरदयाल जी इन विद्यार्थियों के संपर्क में आये और इन्हें अपने विचारों से दो-चार कराया. लाला हरदयाल और भाई परमानंद ने भारत की ग़ुलामी पर एक जोशीला भाषण दिया. जिसने करतार सिंह की सोच पर गहरा असर किया. और वो भारत की आज़ादी के बारे में विस्तार और गहराई से सोचने लगे.
लाला हरदयाल का साथ
1911 ई. में सराभा अपने कुछ सम्बन्धियों के साथ अमेरिका चले गये। वे 1912 में सेन फ़्राँसिस्को पहुँचे। वहाँ पर एक अमेरिकन अधिकारी ने उनसे पूछा "तुम यहाँ क्यों आये हो?" सराभा ने उत्तर देते हुए कहा, "मैं उच्च शिक्षा प्राप्त करने के उद्देश्य से आया हूँ।" किन्तु सराभा उच्च शिक्षा प्राप्त नहीं कर सके। वे हवाई जहाज बनाना एवं चलाना सीखना चाहते थे। अत: इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु एक कारखाने में भरती हो गये। इसी समय उनका सम्पर्क लाला हरदयाल से हुआ, जो अमेरिका में रहते हुए भी भारत की स्वतंत्रता के लिए प्रयत्नशील दिखे। उन्होंने सेन फ़्राँसिस्को में रहकर कई स्थानों का दौरा किया और भाषण दिये। सराभा हमेशा उनके साथ रहते थे और प्रत्येक कार्य में उन्हें सहयोग देते थे।
साहस की प्रतिमूर्ति
करतार सिंह सराभा साहस की प्रतिमूर्ति थे। देश की आज़ादी से सम्बन्धित किसी भी कार्य में वे हमेशा आगे रहते थे। 25 मार्च, 1913 ई. में ओरेगन प्रान्त में भारतीयों की एक बहुत बड़ी सभा हुई, जिसके मुख्य वक्ता लाला हरदयाल थे। उन्होंने सभा में भाषण देते हुए कहा था, "मुझे ऐसे युवकों की आवश्यकता है, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण दे सकें।" इस पर सर्वप्रथम करतार सिंह सराभा ने उठकर अपने आपको प्रस्तुत किया। तालियों की गड़गड़ाहट के बीच लाला हरदयाल ने सराभा को अपने गले से लगा लिया।
सम्पादन कार्य
इसी सभा में 'गदर' नाम से एक समाचार पत्र निकालने का निश्चय किया गया, जो भारत की स्वतंत्रता का प्रचार करे। इसे कई भाषाओं में प्रकाशित किया जाये और जिन-जिन देशों में भारतवासी रहते हैं, उन सभी में इसे भेजा जाये। फलत: 1913 ई. में 'गदर' प्रकाशित हुआ। इसके पंजाबी संस्करण के सम्पादक का कार्य सराभा ही करते थे।
क्रांतिकारियों के साथ चलती है क्रांति
पंजाब में विद्रोह चलाने के दौरान उन्होंने क्रांतिकारियों के साथ नज़दीकी बढ़ानी शुरू की. भारत के गुलाम हालातों पर उनकी पैनी नज़र स्पष्ट विचारों का निर्माण कर रही थी. राजबिहारी बोस, शचीन्द्रनाथ सान्याल के साथ अपने विचार साझे किए और क्रांतिकारियों की एक सेना बनाने का सुझाव दिया. बाद में रासबिहारी बोस ने अपने आस-पास के माहौल को देखते हुए करतार सिंह को लाहौर छोड़कर काबुल चले जाने की सलाह दी. उन्होंने काबुल जाने की तय कर ली लेकिन वज़ीराबाद तक पहुंचते-पहुंचते उन्होंने सोचा कि भागने से बेहतर है मैं फांसी के तख़्ते पर चढ़ जाऊं. इसी सोच को अंजाम देते हुए स्वयं जा कर ख़ुद को पुलिस के हवाले कर दिया. बाद में उन पर कई मुकदमें चले. जिसके परिणाम स्वरूप जज ने उन्हें फांसी की सज़ा सुनाई.
अंतिम समय भी दिया संदेश
शहीद होने से पहले इन्होंने कहा था कि 'अगर कोई पुर्नजन्म का सिद्धांत है तो मैं भगवान से यही प्रार्थना करूंगा कि जब तक मेरा देश आज़ाद न हो मैं भारत की स्वतंत्रता में अपना जीवन न्यौछावर करता रहूं'. 16 नवंबर 1915 को करतार सिंह ने मात्र 19 साल की उम्र में हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया.