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फाह्यान जीवनी - Biography of Fahien in Hindi Jivani

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प्राचीन काल में ईसा से पूर्व ही धर्म, कला, नीति सभ्यता व संस्कृति के क्षेत्र में भारत की ख्याति विदेशों में फैल चुकी थी। यही कारण है कि भारत सदैव विदेशियों के आकर्षण का केन्द्र रहा है। चौथी शताब्दी में फाहियान नाम का एक बौद्ध भिक्षु अपने तीन अन्य भिक्षु-साथियों के साथ भारत आया। चूंकि बौद्ध धर्म भारत से ही चीन गया था अत: फाहियान का यहां आने का प्रमुख उद्देश्य बौद्ध धर्म के आधारभूत ग्रन्थ ‘त्रिपिटक’ में से एक ‘विनयपिटक’ को ढूंढ़ना था। फाहियान पहला चीनी यात्री था, जिसने अपने यात्रा-वृत्तांत को लिपिबद्ध किया। प्रस्तुत पुस्तक फाहियान के रोचक संस्मरणों के माध्यम से तत्कालीन भारतीय परिवेश को जानने का सुअवसर प्रदान करती है।


फाह्यान (Fahien) भारत की यात्रा पर आने वाले पहले चीनी भिक्षु , यात्री और अनुवादक थे जिनका लक्ष्य यहा से बौद्ध ग्रन्थ एकत्रित करके उन्हें चीन ले जाना था |फाह्यान (Fahien) का जन्म चीन के पिंगग्यांग में 337 ईस्वी में हुआ था | वे बौद्ध अनुयायी थे और उन्होंने चोटी उम्र में ही घर बार त्यागकर सन्यास ले लिया था | उन्होंने बौद्ध ग्रंथो का गहन अध्ययन किया था | अपने अध्ययन में अपूर्णता जानकर उनकी इच्छा हुयी कि भारत जाकर ओर बौद्ध ग्रंथो की तलाश करे | विनयपटिक का उपलब्ध संस्करण भी उन्हें अपूर्ण लगा और वे पूर्ण ग्रंथो की खोज में भारत चल पड़े | उस वक्त उनकी उम्र 65 वर्ष थी | वे पैदल ही मध्य एशिया होते हुए शेनशेन , दूनहुआंग , खोटान और पेशावर के रास्ते 402 ईस्वी में भारत पहुचे थे |


फाह्यान (Fahien) की यात्रा के समय भारत में गुप्त राजवंश के चन्द्रगुप्त का काल था और चीन जिन राजवंश का शासन था | यहा उन्होंने पाटलीपुत्र और ताम्रलिपि में पांच वर्ष बौद्ध अध्ययन किया फिर कपिलवस्तु ,कुशीनगर ,वाराणासी ,गया आदि जगहों पर गये जो बुद्ध से संबधित थी | वे जब चीन लौटे उस वक्त 77 वर्ष के थे | 414 इसवी में उन्होंने अपनी यात्रा का वृतांत “बौद्ध राज्यों का अभिलेख” नाम से लिखा ,जिसे आज “फाह्यान की यात्राये ” नामा से जाना जाता है |


यात्रा के समय उसने उद्दियान, गांधार, तक्षशिला, उच्छ, मथुरा, वाराणसी, गया आदि का परिदर्शन किया। पाटलिपुत्र में तीन वर्ष तक अध्ययन करने के बाद दो वर्ष उसने ताम्रलिप्ति में भी बिताए। यहाँ वह धर्मसिद्धांतों की तथा चित्रों की प्रतिलिपि तैयार करता रहा। यहाँ से उसने सिंहल की यात्रा की और दो वर्ष वहाँ भी बिताए। फिर वह यवद्वीप (जावा) होते हुए ४१२ में शांतुंग प्रायद्वीप के चिंगचाऊ स्थान में उतरा। अत्यंत वृत्र हो जाने पर भी वह अपने पवित्र लक्ष्य की ओर अग्रसर होता रहा। चिएन कांग (नैनकिंग) पहुँचकर वह बौद्ध धर्मग्रंथों के अनुवाद के कार्य में संलग्न हो गा। अन्य विद्वानों के साथ मिलकर उसने कई ग्रंथों का अनुवाद किया, जिनमें से मुख्य हैं-परिनिर्वाणसूत्र और महासंगिका विनय के चीनी अनुवाद।


यात्रा :


फ़ाहियान चीन से रेशम मार्ग पर होते हुए आये और उन्होने अपने यात्रा-वृत्तांत में रास्ते के मध्य एशियाई देशों के बारे में लिखा है। सर्द रेगिस्तानों और विषम पहाड़ी दर्रों से गुज़रते हुए वे भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तरी क्षेत्र में दाख़िल हुए और पाटलिपुत्र पहुँचे। फिर वे दक्षिण में श्रीलंका भी गए जहाँ उन्होंने कहा कि वहाँ के मूल निवासी दैत्य और अझ़दहे (ड्रैगन) हुआ करते थे स्थान-स्थान से एकत्रित की बौद्ध ग्रन्थ और प्रतिमाएँ लेकर वे समुद्री रास्ते से श्रीलंका से पूर्व को निकले जहाँ एक भयंकर तूफ़ान ने उनके जहाज़ को भटका दिया और १०० दिनों तक सागर में भटककर वे जावा द्वीप (आधुनिक इंडोनेशिया) पर जा पहुँचें। वहाँ से वे आगे निकले और चीन के आधुनिक शानदोंग प्रान्त में लाओशान पहुँचे। फिर शानदोंग की उस समय की राजधानी, चिंगझोऊ नगर, में उन्होने एक वर्ष तक रूककर अपने साथ लाइ गई सामग्री को संगठित और अनुवादित किया।


चन्द्रगुप्त द्वितीय की प्रशंसा :


नालन्दा में फ़ाह्यान ने बुद्ध के शिष्य 'सारिपुत्र' की अस्थियों पर निर्मित स्तूप का उल्लेख किया, इसके बाद वह राजगृह, बोधगया एवं सारनाथ की यात्रा के बाद वापस पाटलिपुत्र आया, जहां कुछ समय बिताने के बाद स्वदेश लौट गया। इस दौरान फ़ाह्यान ने लगभग 6 वर्ष सफर में एवं 6 वर्ष अध्ययन में बिताया। पाटिलपुत्र में संस्कृत के अध्ययन हेतु उसने 3 वर्ष व्यतीत किये। फ़ाह्यान ने अपने समकाली नरेश चन्द्रगुप्त द्वितीय के नाम की चर्चा न कर उसकी धार्मिक सहिष्णुता की नीति एवं कुशल प्रशासन की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की है। उसके अनुसार इस समय जनता सुखी थीं, कर का भार अल्प था, शारीरिक दण्ड एवं मृत्युदण्ड का प्रचलन नहीं था, अर्थदण्ड ही पर्याप्त होता था।


समाज का वर्णन :


        तत्काली समाज पर प्रकाश डालते हुए फ़ाह्यान ने कहा है कि, लोग अतिथि परायण होते थे। भोजन में लहसुन, प्याज, मदिरा, मांस, मछली का प्रयोग नहीं करते थे। फ़ाह्यान ने चाण्डाल जैसी अस्पृश्य जाति का भी उल्लेख किया है, जिनका एक तरह से सामाजिक बहिष्कार किया जाता था। वैश्य जाति की प्रशंसा फ़ाह्यान ने इसलिए की, क्योंकि इस जाति ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार एवं भिक्षुओं के विश्राम हेतु मठों के निर्माण में काफ़ी धन व्यय किया था।