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बिधान चंद्र राय जीवनी Biography of Bidhan Chandra Roy in Hindi Jivani

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उनका जन्म खजान्ची रोड बन्कीपुर, पटना, बिहार मे एक प्रवासी बंगाली परिवार में हुआ था। उनके जन्म स्थान को वर्तमान मे अघोर प्रकाश शिशु सदन नामक विद्यालय मे परिवर्तित कर दिया गया है।


मात-पिता के ब्रह्मसमाजी होने से डाक्टर राय पर ब्रह्मसमाज का बाल्यावस्था से ही अमिट प्रभाव पड़ा था। उनके पिता प्रकाशचंद्र राय डिप्टी मजिस्ट्रेट थे, पर अपनी दानशीलता एवं धार्मिक वृत्ति के कारण कभी अर्थसंचय न कर सके। अत: विधानचंद्र राय का प्रारंभिक जीवन अभावों के मध्य ही बीता। बी. ए. परीक्षा उत्तीर्ण कर वे सन् १९०१ में कलकत्ता चले गए। वहाँ से उन्होंने एम. डी. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उन्हें अपने अध्ययन का व्यय भार स्वयं वहन करना पड़ता था। योग्यताछात्रवृत्ति के अतिरिक्त अस्पताल में नर्स कार्य करके वे अपना निर्वाह करते थे। अर्थाभाव के कारण डाक्टर विधानचंद्र राय ने कलकत्ता के अपने पाँच वर्ष के अध्ययनकाल में पाँच रुपए मूल्य की मात्र एक पुस्तक खरीदी थी। मेधावी इतने थे कि एल. एम. पी. के बाद एम. डी. परीक्षा दो वर्षों की अल्पावधि में उत्तीर्ण कर कीर्तिमान स्थापित किया। फिर उच्च अध्ययन के निमित्त इंग्लैंड गए। विद्रोही बंगाल का निवासी होने के कारण प्रवेश के लिए उनका आवेदनपत्र अनेक बार अस्वीकृत हुआ। बड़ी कठिनाई से वे प्रवेश पा सके। दो वर्षों में ही उन्होंने एम. आर. सी. पी. तथा एफ. आर. सी. एस. परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लीं। कष्टमय एवं साधनामय विद्यार्थीजीवन की नींव पर ही उनके महान् व्यक्तित्व का निर्माण हुआ।


करियर

मेडिकल की पढ़ाई के बाद बिधान राज्य स्वास्थ्य सेवा में नियुक्त हो गए। यहाँ उन्होंने समर्पण और मेहनत से कार्य किया। अपने पेशे से सम्बंधित किसी भी कार्य को वो छोटा नहीं समझते थे। जरुरत पड़ने पर उन्होंने नर्स की भी भूमिका निभाई। बचे हुए खाली वक़्त में वे निजी डॉक्टरी करते थे।


सन 1909 में मात्र 1200 रुपये के साथ सेंट बर्थोलोमिउ हॉस्पिटल में एम.आर.सी.पी. और एफ.आर.सी.एस. करने के लिए बिधान इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए। कॉलेज का डीन किसी एशियाई छात्र को दाखिला देने के पक्ष में नहीं था इसलिए उसने उनकी अर्जी ख़ारिज कर दी पर बिधान भी धुन के पक्के थे अतः उन्होंने अर्जी पे अर्जी की और अंततः 30 अर्जियों के बाद उन्हें दाखिला मिल गया। उन्होंने 2 साल और तीन महीने में एम.आर.सी.पी. और एफ.आर.सी.एस. पूरा कर लिया और सन 1911 में देश वापस लौट आये। वापस आने के बाद उन्होंने कलकत्ता मेडिकल कॉलेज, कैम्पबेल मेडिकल स्कूल और कारमाइकल मेडिकल कॉलेज में शिक्षण कार्य किया।


डॉ रॉय के अनुसार देश में असली स्वराज तभी आ सकता है जब देशवासी तन और मन दोनों से स्वस्थ हों। उन्होंने चिकित्सा शिक्षा से सम्बंधित कई संस्थानों में अपना अंशदान दिया। उन्होंने जादवपुर टी.बी. अस्पताल, चित्तरंजन सेवा सदन, कमला नेहरु अस्पताल, विक्टोरिया संस्थान और चित्तरंजन कैंसर अस्पताल की स्थापना की। सन 1926 में उन्होंने चित्तरंजन सेवा सदन की स्थापना भी की। प्रारंभ में महिलाएं यहाँ आने में हिचकिचाती थीं पर डॉ बिधान और उनके दल के कठिन परिश्रम से सभी समुदायों की महिलाओं यहाँ आने लगीं। उन्होंने नर्सिंग और समाज सेवा के लिए महिला प्रशिक्षण केंद्र भी स्थापित किया।


सन् 1942 में डॉ बिधान चन्द्र रॉय कलकत्ता विश्विद्यालय के उपकुलपति नियुक्त हुए। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान वे ऐसी कठिन परिस्थितियों में भी कोलकाता में शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था बनाये रखने में सफल रहे।


गाँधी जी का सान्निध्य


अब तक डॉ. राय अपनी विद्वत्ता और प्रतिभा के कारण गांधीजी और नेहरू जी के भी बहुत निकट आ गये थे। उन्होंने गांधी जी के सहयोग से देशबंधु जी की स्मृति में 'चितरंजन सेवा सदन' के निर्माण की योजना बनायी। गांधी जी ने डॉ. राय को इस ट्रस्ट का सचिव बनाया। सन् 1928 में वे अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के सदस्य चुने गये। 1929 में उन्होंने बंगाल में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का नेतृत्व किया। सन् 1930 में उन्हें कांग्रेस कार्यकारिणी समिति में नियुक्त किया गया। सन् 1930 में ही उन्हें आन्दोलन के संदर्भ में गिरफ्तार कर अलीपुर जेल भेज दिया गया। जेल में रहते हुए भी डॉ. राय ने जेल के अस्पताल में सराहनीय कार्य किए। सन् 1931 में वे जेल से रिहा कर दिए गये। इसी वर्ष वह कोलकाता के मेयर चुने गये। सन् 1934 में वह बंगाल प्रदेश कांग्रेस समिति के अध्यक्ष चुने गये। इसी वर्ष वह 'फारवर्ड ब्लॉक' के अध्यक्ष बने और खुल कर कांग्रेस और बंगाल के क्रांतिकारी आन्दोलन का समर्थन किया। कुछ समय पश्चात् ही उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद से इस कारण इस्तीफा दे दिया, क्योंकि वह इस दायित्व के कारण अपने डॉक्टरी और अध्यापन के कार्यों को उचित समय नहीं दे पा रहे थे। विशेषकर गरीब रोगियों की चिंता ने ही उन्हें इसके लिए अधिक प्रेरित किया। सन् 1940 में वे कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति से भी अलग हो गये। सन् 1942 में वह कलकत्ता विश्विद्यालय के उपकुलपति नियुक्त हुए। दूसरे विश्व युद्ध का दौर चल रहा था। डॉ. राय ने ऐसी विषम परिस्थितियों में भी कोलकाता में शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था को बनाये रखा। विश्वविद्यालय के संगठन और प्रबंधकारिणी सभा के सदस्य, लेखा मंडल के अध्यक्ष तथा उपकुलपति के रूप में उनकी सेवाओं के लिए उन्हें 'डॉक्टर ऑफ़ सांइस' की उपाधि दी गयी।


निधन


1 जुलाई, 1962 को 80 वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया। डॉ. राय की मृत्यु पर पूरा राष्ट्र शोक में डूब गया। महान् समाज सेविका मदर टेरेसा स्वंय उनकी मृत्यु पर बहुत दुखी हुईं, क्योंकि जब तक डॉ. राय जीवित रहे, उन्होंने मदर टेरेसा और उनकी संस्था के कार्यों को यथासंभव सहयोग दिया था। उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी स्मृति और सम्मान में 1967 में दिल्ली में डॉ. बी.सी.राय स्मारक पुस्तकालय और वाचनालय की स्थापना की गयी। सन् 1976 में उनके नाम पर ' डॉ. बी.सी.राय राष्ट्रीय पुरस्कार' आरम्भ किया गया। यह पुरस्कार चिकित्सा, दर्शन, साहित्य, कला और राजनीति विज्ञान के लिए दिया जाता है।