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सैयद हैदर रज़ा उर्फ़ एस.एच. रज़ा का जन्म 22 फ़रवरी 1922 को मध्य प्रदेश के मंडला जिले के बावरिया में हुआ था। वर्ष 1950 के बाद से रजा फ्रांस में रहने लगे थे मगर वह लगातार अपने देश भारत से जुड़ रहे थे। उनके बनाए प्रमुख चित्र अधिकतर तेल या एक्रेलिक में बने परिदृश्य हैं जिनमे रंगों का अत्यधिक प्रयोग किया गया है, व जो भारतीय ब्रह्माण्ड विज्ञान के साथ-साथ इसके दर्शन के चिह्नों से भी परिपूर्ण हैं। भारत सरकार ने 1981 में उन्हें पद्मश्री और वर्ष 2007 में पद्म भूषण से सम्मानित किया था। 10 जून 2010 को वे तब भारत के सबसे महंगे आधुनिक कलाकार बन गए जब क्रिस्टी की नीलामी में 88 वर्षीय रज़ा का 'सौराष्ट्र' नामक एक सृजनात्मक चित्र 16.42 करोड़ रुपयों (34,86,965 डॉलर) में बिका।
सैयद हैदर रजा नहीं रहे. जो उनके काम से नावाकिफ हैं उनके लिए 94 वर्षीय रजा साहब का जाना एमएफ हुसैन की तरह ही हिंदुस्तानी चित्रकारी के एक बेहद अहम और मुख्तलिफ हस्ताक्षर का विदा लेना कहलाएगा. लेकिन जो उनके काम में गहरी दिलचस्पी रखते आए हैं वे जानते होंगे कि ‘जो दिखता है वही समझ आता है’ के प्रिज्म से ही पेंटर और उसकी अभिव्यक्तियों को समझने वाले हमारे समाज में रजा ने अपनी एब्सट्रेक्ट आर्ट के जरिए बिंदु, त्रिकोण, पंचतत्व और पुरुष-प्रकृति जैसे हिंदुस्तानी दर्शन को न सिर्फ नयी-अनोखी अभिव्यक्ति दी थी बल्कि हिंदुस्तानी मॉडर्न आर्ट को भी अपने नाम के एक पुरोधा से नवाजा था.
मध्य प्रदेश के एक छोटे-से जिले मंडला से अपने जीवन की शुरुआत करने वाले एसएच रजा अपनी जवानी के दिनों में ही फ्रांस जाकर बस गए, और उनसे मेरी वह यादगार मुलाकात तब की बात है जब 60 साल बाद वापस हिंदुस्तान आकर बसने का फैसला करने के बाद वे दिल्ली के सफदरजंग डेवलपमेंट एरिया के एक दो-मंजिला फ्लैट में अकेले रहने लगे थे. अपनी तस्वीरों के साये और कुछ सहायकों के सहारे, क्योंकि दिल्ली में यार-दोस्तों का सहारा तो था लेकिन पत्नी का साथ न था.
उनकी पत्नी जेनिन एक फ्रेंच चित्रकार थीं जिनके निधन के बाद ही रजा फ्रांस को अलविदा कहकर भारत आए और उस दिन भी यह बताते हुए शून्य में खो गए कि कैसे वे और जेनिन जवानी के दिनों में फ्रांस में एक प्रोफेसर के स्टूडियो में साथ ही पेंटिंग सीखा करते थे। सैयद हैदर रज़ा की पहली एकल प्रदर्शनी सन 1946 में बॉम्बे आर्ट सोसाइटी में प्रदर्शित हुई। सोसाइटी ने उन्हें रजत पदक से सम्मानित किया। 1940 के शुरुआती दौर में परिदृश्यों तथा शहर के चित्रणों से गुजरते हुए उनकी चित्रकारी का झुकाव चित्रकला की अधिक अर्थपूर्ण भाषा, मस्तिष्क के चित्रण की ओर हो गया।
वर्ष 1947 में उन्होनें के.एच. आरा तथा ऍफ़.एन. सूज़ा के साथ ‘बॉम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप’ की स्थापना की। इस ग्रुप का मुख्य मकसद था भारतीय कला को यूरोपीय यथार्थवाद के प्रभावों से मुक्ति और इसमें भारतीय अंतर दृष्टि (अंतर ज्ञान) का समावेश। बॉम्बे प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप’ ने अपनी पहली प्रदर्शनी सन 1948 में आयोजित की।
फ्रांस में रज़ा ने वृहद् परिदृश्यों के चित्रण तथा अंततः इसमें भारतीय हस्तलिपियों के तांत्रिक तत्वों को सम्मिलित कर पश्चिमी आधुनिकता की धारा के साथ प्रयोग जारी रखा। जिस समय उनके समकालीन चित्रकार अपनी कला के लिए अधिक औपचारिक विषय चुन रहे थे, उस समय रज़ा ने 1940 और 50 के दशकों के परिदृश्यों के चित्रण पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया। सन 1962 में उन्होंने अमेरिका के कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) में अंशकालिक व्याख्याता का पद स्वीकार किया। प्रारंभ में फ्रांस के ग्रामीण इलाकों और उसके ग्राम्य जीवन ने रज़ा को बहुत आकृष्ट किया।
1970 के दशक तक रज़ा अपने ही काम से नाखुश और बेचैन हो गए थे और वे अपने काम में एक नई दिशा और गहरी प्रामाणिकता पाना चाहते थे और उस चीज़ से दूर होना चाहते थे जिसे वे प्लास्टिक कला कहते थे। उनके भारत दौरे, विशेषकर अजंता व एलोरा की गुफाओं के दौरे, जिसके बाद उन्होनें बनारस, गुजरात तथा राजस्थान की यात्रा की, ने उन्हें अपनी जड़ों का एहसास कराया तथा भारतीय संस्कृति को निकटता से जानने के लिए प्रेरित किया, जिसका परिणाम 'बिंदु' के रूप में सामने आया,जो एक चित्रकार के रूप में उनके पुर्न्जनम को दर्शाता था।
बिंदु का उदय 1980 में हुआ और यह उनके काम को अधिक गहराई में, उनके द्वारा खोजे गए नए भारतीय दृष्टिकोण और भारतीय संस्कृति की ओर ले गया। उनके द्वारा वर्णित 'बिंदु' की शुरुआत के कई कारणों में से एक उनकी प्राथमिक स्कूल शिक्षक है, जिसने यह जानने के पश्चात् कि उनमें एकाग्रता की कमी है, ब्लैकबोर्ड पर एक बिंदु बना दिया तथा उन्हें इस पर ध्यान लगाने के लिए कहा.
बिंदु' (ऊर्जा का बिंदु या स्त्रोत) की शुरुआत के बाद, उन्होनें बाद के दशकों में अपनी विषयगत कृति में नए आयाम जोड़े जिनमें त्रिभुज के इर्द गिर्द केन्द्रित विषय थे, जो अंतरिक्ष तथा समय को भारतीय अवधारणाओं के साथ-साथ 'प्रकृति-पुरुष' (नर व मादा ऊर्जा) से जोड़ते थे, जिससे अभिव्यक्ति करने वाले व्यक्ति से ले कर चित्र तथा इसकी गहराई तक पहुंचने वाला गुरु बनने का उनका परिवर्तन पूर्ण हो गया था।
व्यक्तिगत जीवन :
एस.एच. रज़ा ने सन 1959 में पेरिस के ‘इकोल डे ब्यू आर्ट्स’ की अपनी सहपाठी जेनाइन मोंगिल्लेट से विवाह किया। जेनाइन बाद में एक प्रसिद्ध कलाकार और मूर्तिकार बन गईं। विवाह उपरान्त जेनाइन की मां ने एस.एच. रज़ा से फ्रांस में ही रहने का अनुरोध किया जिसके बाद वे वहीँ बस गए। जेनाइन की मृत्यु 5 अप्रैल 2002 को पेरिस में हुई।
पुरस्कार और सम्मान :
1. 1946: रजत पदक, बॉम्बे आर्ट सोसाइटी, मुंबई
2. 1948: स्वर्ण पदक, बॉम्बे आर्ट सोसायटी, मुंबई
3. 1956: प्रिक्स डे ला क्रिटिक, पेरिस
4. 1981: पद्म श्री, भारत सरकार
5. 1981: ललित कला अकादमी की मानद सदस्यता, नई दिल्ली
6. 1981: कालिदास सम्मान, मध्य प्रदेश सरकार
7. 2007: पद्म भूषण, भारत सरकार