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शाह जहाँ पांचवे मुग़ल शहंशाह था। शाह जहाँ अपनी न्यायप्रियता और वैभवविलास के कारण अपने काल में बड़े लोकप्रिय रहे। किन्तु इतिहास में उनका नाम केवल इस कारण नहीं लिया जाता। शाहजहाँ का नाम एक ऐसे आशिक के तौर पर लिया जाता है जिसने अपनी बेग़म मुमताज़ बेगम के लिये विश्व की सबसे ख़ूबसूरत इमारत ताज महल बनाने का यत्न किया। सम्राट जहाँगीर के मौत के बाद, छोटी उम्र में ही उन्हें मुगल सिंहासन के उत्तराधिकारी के रूप में चुन लिया गया था। 1627 में अपने पिता की मृत्यु होने के बाद वह गद्दी पर बैठे। उनके शासनकाल को मुग़ल शासन का स्वर्ण युग और भारतीय सभ्यता का सबसे समृद्ध काल बुलाया गया है।
शाहजहाँ का जन्म जोधपुर के शासक राजा उदयसिंह की पुत्री 'जगत गोसाई' (जोधाबाई) के गर्भ से 5 जनवरी, 1592 ई. को लाहौर में हुआ था। उसका बचपन का नाम ख़ुर्रम था। ख़ुर्रम जहाँगीर का छोटा पुत्र था, जो छल−बल से अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ था। वह बड़ा कुशाग्र बुद्धि, साहसी और शौक़ीन बादशाह था। वह बड़ा कला प्रेमी, विशेषकर स्थापत्य कला का प्रेमी था। उसका विवाह 20 वर्ष की आयु में नूरजहाँ के भाई आसफ़ ख़ाँ की पुत्री 'आरज़ुमन्द बानो' से सन् 1611 में हुआ था। वही बाद में 'मुमताज़ महल' के नाम से उसकी प्रियतमा बेगम हुई। 20 वर्ष की आयु में ही शाहजहाँ, जहाँगीर शासन का एक शक्तिशाली स्तंभ समझा जाता था। फिर उस विवाह से उसकी शक्ति और भी बढ़ गई थी। नूरजहाँ, आसफ़ ख़ाँ और उनका पिता मिर्ज़ा गियासबेग़ जो जहाँगीर शासन के कर्त्ता-धर्त्ता थे, शाहजहाँ के विश्वसनीय समर्थक हो गये थे। शाहजहाँ के शासन−काल में मुग़ल साम्राज्य की समृद्धि, शान−शौक़त और ख्याति चरम सीमा पर थी। उसके दरबार में देश−विदेश के अनेक प्रतिष्ठित व्यक्ति आते थे।
मनसब व उपाधि
1606 ई. में शाहज़ादा ख़ुर्रम को 8000 जात एवं 5000 सवार का मनसब प्राप्त हुआ। 1612 ई. में ख़ुर्रम का विवाह आसफ़ ख़ाँ की पुत्री आरज़ुमन्द बानों बेगम (बाद में मुमताज़ महल) से हुआ, जिसे शाहजहाँ ने ‘मलिका-ए-जमानी’ की उपाधि प्रदान की। 1631 ई. में प्रसव पीड़ा के कारण उसकी मृत्यु हो गई। आगरा में उसके शव को दफ़ना कर उसकी याद में संसार प्रसिद्ध ताजमहल का निर्माण किया गया। शाहजहाँ की प्रारम्भिक सफलता के रूप में 1614 ई. में उसके नेतृत्व में मेवाड़ विजय को माना जाता है। 1616 ई. में शाहजहाँ द्वारा दक्षिण के अभियान में सफलता प्राप्त करने पर उसे 1617 ई. में जहाँगीर ने ‘शाहजहाँ’ की उपाधि प्रदान की थी।
शाहजहाँ की धार्मिक निति
शाहजहाँ (Shah Jahan) ने अपने शासनकाल के आरम्भिक वर्षो में इस्लाम का पक्ष लिया किन्तु कालान्तर में दारा और जंहाआरा के प्रभाव के कारण सहिष्णु बन गया था | शाहजहाँ ने 1636-37 में सिजदा एवं पायवोस प्रथा को समाप्त कर दिया और उसके स्थान पर “चहार तस्लीम” की प्रथा शुरू करवाई तथा पगड़ी में बादशाह की तस्वीर पहनने की मनाही कर दी | शाहजहाँ ने इलाही संवत के स्थान पर हिजरी संवत चलाया , हिन्दुओ को मुसलमान गुलाम रखने से मना कर दिया , हिन्दुओ की तीर्थयात्रा पर कर लगाया (यधपि कुछ समय बाद हटा लिया) तथा गौ-हत्या निषेध संबधी अकबर और जहांगीर के आदेश को समाप्त कर दिया |
शाहजहाँ ने 1633 ई. में पुरे साम्राज्य में नवनिर्मित हिन्दू मन्दिरों को गिरा देने का हुक्मनामा जारी किया जिसके फलस्वरूप बनारस ,इलाहाबाद , गुजरात , और कश्मीर में अनेक हिन्दू मन्दिर तोड़े गये | शाहजहाँ ने झुझार सिंह के परिवार के कुछ सदस्यों को बलात इस्लाम स्वीकार करने के लिए बाध्य किया | शाहजहाँ (Shah Jahan) ने 1634 ई. में यह पाबंदी लगा दी कि यदि कोई मुसलमान लडकी हिन्दू मर्द से तब तक ब्याही नही जा सकती है जब तक कि वह इस्लाम धर्म स्वीकार न कर ले | पुर्तगालियो से युद्ध होने पर उसने आगरे के गिरिजाघरो को तुड़वा दिया था | अपने शासनकाल के सातवे वर्ष शाहजहाँ ने यह आदेश जारी किया कि यदि कोई स्वेच्छा से मुसलमान बन जाए तो उसे अपने पिता की सम्पति का हिस्सा प्राप्त हो जाएगा | शाहजहाँ (Shah Jahan) ने हिन्दुओ को मुसलमान बनाने के लिए एक पृथक विभाग ही स्थापित कर दिया | शाहजहाँ ने 2,50,000 रूपये के कीमत के हीर-जवाहरातो से जड़ी एक मशाल “मुहम्मद साहब” के मकबरे में भेंट की तथा 50,000 रूपये मक्का के धर्मगुरु को भेंट की |
शाहजहाँ का इतिहास – History Of Shahjahan
अपने पराक्रमो से आदिलशाह और निजामशाह के प्रस्थापित वर्चस्वो को मु तोड़ जवाब देकर सफलता मिलाने वाला राजा के रूप में शाहजहाँ की पहचान होती है। वैसेही खुदकी रसिकता को जपते हुये कलाकारों के गुणों को प्रोत्साहन देने वाला और ताजमहल जैसी अप्रतिम वास्तु खड़ी करने वाला ये राजा था।
पारसी भाषा, वाड़:मय, इतिहास, वैदिकशास्त्र, राज्यशास्त्र, भूगोल, धर्म, युद्ध और राज्यकारभार की शिक्षा शहाजहान उर्फ राजपुत्र खुर्रम इनको मिली। इ.स. 1612 में अर्जुमंद बानू बेगम उर्फ मुमताज़ महल इनके साथ विवाह हुवा। उनके विवाह का उन्हें राजकारण में बहोत उपयोग हुवा।
शाहजहाँ बहोत पराक्रमी थे। आदिलशहा, कुतुबशहा ये दोनों भी उनके शरण आये। निजामशाह की तरफ से अकेले शहाजी भोसले ने शाहजहाँ से संघर्ष किया। लेकिन शहाजहान के बहोत आक्रमण के वजह से शहाजी भोसले हारकर निजामशाही खतम हुयी। भारत के दुश्मन कम हो जाने के बाद शहाजहान की नजर मध्य आशिया केसमरकंद के तरफ गयी। लेकिन 1639-48 इस समय में बहोत खर्चा करके भी वो समरकंद पर जीत हासिल कर नहीं सके