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रावल रतन सिंह (Rawal Ratan Singh) का जन्म 13वी सदी के अंत में हुआ था | उनकी जन्म तारीख इतिहास में कही उपलब्ध नही है | रतनसिंह राजपूतो की रावल वंश के वंशज थे जिन्होंने चित्रकूट किले (चित्तोडगढ) पर शासन किया था | रतनसिंह (Rawal Ratan Singh) ने 1302 ई. में अपने पिता समरसिंह के स्थान पर गद्दी सम्भाली , जो मेवाड़ के गुहिल वंश के वंशज थे | रतनसिंह को राजा बने मुश्किल से एक वर्ष भी नही हुआ कि अलाउदीन ने चित्तोड़ पर चढाई कर दी | छ महीने तक घेरा करने के बाद सुल्तान ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया | इस जीत के बाद एक ही दिन में 30 हजार हिन्दुओ को बंदी बनाकर उनका संहार किया गया | जिया बर्नी तारीखे फिरोजशाही में लिकता है कि 4 महीने में मुस्लिम सेना को भारी नुकसान पहुचा |
रानी पद्मिनी से विवाह
रावल समरसिंह के बाद रावल रतन सिंह चित्तौड़ की राजगद्दी पर बैठा। रावल रतन सिंह का विवाह रानी पद्मिनी के साथ हुआ था। रानी पद्मिनी के रूप, यौवन और जौहर व्रत की कथा, मध्यकाल से लेकर वर्तमान काल तक चारणों, भाटों, कवियों, धर्मप्रचारकों और लोकगायकों द्वारा विविध रूपों एवं आशयों में व्यक्त हुई है। रतन सिंह की रानी पद्मिनी अपूर्व सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता की ख्याति दूर-दूर तक फैली थी। उसकी सुन्दरता के बारे में सुनकर दिल्ली का तत्कालीन बादशाह अलाउद्दीन ख़िलज़ी पद्मिनी को पाने के लिए लालायित हो उठा और उसने रानी को पाने हेतु चित्तौड़ दुर्ग पर एक विशाल सेना के साथ चढ़ाई कर दी।
ऐसा कहा जाता है कि रतन सिंह ने एक स्वयंवर में रानी पद्मिनी से शादी की थी. अलाउद्दीन ख़िलजी और रतन सिंह के बीच टकराव की भी कई कहानियां मिलती हैं. ऐसा कहा जाता है कि सुल्तान ने राजा को बंदी बना लिया था. बाद में राजा के लड़ाकों ने उन्हें आज़ाद कराया.
प्रचलित है कि सुल्तान ने बाद में किले पर हमला किया. वो भीतर तो दाख़िल नहीं हो सका, लेकिन बाहर कब्ज़ा जमाए रखा. बाद में रतन सिंह ने अपनी सेना को अंतिम सांस तक लड़ने को कहा. जब सुल्तान ने राजपूत राजा को हराया तो उनकी पत्नी रानी पद्मिनी ने जौहर (आत्मदाह) किया.
ख़िलजी और रतन सिंह की लड़ाई
जयपुर में हिस्ट्री के प्रोफेसर राजेंद्र सिंह खंगरोट बताते हैं कि ' अलाउद्दीन ख़िलजी और रतन सिंह के टकराव को अलग करके नहीं देखा जा सकता. ये सत्ता के लिए संघर्ष था जिसकी शुरुआत मोहम्मद गोरी और पृथ्वीराज चौहान के बीच साल 1191 में होती है.'
जयगढ़, आमेर और सवाई मान सिंह पर किताब लिख चुके खंगरोट ने कहा, ''तुर्कों और राजपूतों के बीच टकराव के बाद दिल्ली सल्तनत और राजपूतों के बीच संघर्ष शुरू होता है. इनके बाद ग़ुलाम से शहंशाह बने लोगों ने राजपुताना में पैर फैलाने की कोशिश की. कुत्तुबुद्दीन ऐबक अजमेर में सक्रिय रहे. इल्तुत्मिश जालौर, रणथंभौर में सक्रिय रहे. बल्बन ने मेवाड़ में कोशिश की, लेकिन कुछ ख़ास नहीं कर सके.''
उन्होंने कहा कि संघर्ष पहले से चल रहा था और फिर ख़िलजी आए जिनका कार्यकाल रहा 1290 से 1320 के बीच. ख़िलजी इन सब में सबसे महत्वाकांक्षी माने जाते हैं. चित्तौड़ के बारे में साल 1310 का ज़िक्र फ़ारसी दस्तावेज़ों में मिलता है जिनमें साफ़ इशारा मिलता है कि ख़िलजी को ताक़त चाहिए थी और चित्तौड़ पर हमला राजनीतिक कारणों की वजह से किया गया
चित्तोडगढ की घेराबंदी
28 जनवरी 1303 को अलाउदीन की विशाल सेना चित्तोड़ की ओर कुच करने निकली | किले के नजदीक पहुचते ही बेडच और गम्भीरी नदी के बीच उन्होंने अपना डेरा डाला | अलाउदीन की सेना ने चित्तोडगढ किले को चारो तरफ से घेर लिया | अलाउदीन खुद चितोडी पहाडी के नजदीक सब पर निगरानी रख रहा था | करीब 6 से 8 महीन तक घेराबंदी चलती रही | खुसरो ने अपनी किताबो में लिखा है कि दो बार आक्रमण करने में खिलजी की सेना असफल रही |जब बरसात के दो महीनों में खिलजी की सेना किले के नजदीक पहुच गयी लेकिन आगे नही बढ़ सकी | तब अलाउदीन ने किले को पत्थरों के प्रहार से गिराने का हुक्म दिया था | 26 अगस्त 1303 को आखिरकार अलाउदीन किले में प्रवेश करने में सफल रहा | जीत के बाद खिलजी ने चित्तोडगढ की जनता के सामूहिक नरसंहार का आदेश दिया था |
ऐतिहासिक उल्लेख
अलाउद्दीन ख़िलज़ी के साथ चित्तौड़ की चढ़ाई में उपस्थित अमीर खुसरो ने एक इतिहास लेखक की स्थिति से न तो 'तारीखे अलाई' में और न सहृदय कवि के रूप में अलाउद्दीन के बेटे खिज्र ख़ाँ और गुजरात की रानी देवलदेवी की प्रेमगाथा 'मसनवी खिज्र ख़ाँ' में ही इसका कुछ संकेत किया है। इसके अतिरिक्त परवर्ती फ़ारसी इतिहास लेखकों ने भी इस संबध में कुछ भी नहीं लिखा है। केवल फ़रिश्ता ने 1303 ई. में चित्तौड़ की चढ़ाई के लगभग 300 वर्ष बाद और जायसीकृत 'पद्मावत' की रचना के 70 वर्ष पश्चात् सन् 1610 में 'पद्मावत' के आधार पर इस वृत्तांत का उल्लेख किया जो तथ्य की दृष्टि से विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता। गौरीशंकर हीराचंद ओझा का कथन है कि पद्मावत, तारीखे फ़रिश्ता और टाड के संकलनों में तथ्य केवल यही है कि चढ़ाई और घेरे के बाद अलाउद्दीन ने चित्तौड़ को विजित किया, वहाँ का राजा रतनसिंह मारा गया और उसकी रानी पद्मिनी ने राजपूत रमणियों के साथ जौहर की अग्नि में आत्माहुति दे दी