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संगीतकार

मुथुस्वामी दीक्षितार जीवनी - Biography of Muthuswami Dikshitar in Hindi Jivani

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मुत्तुस्वामी दीक्षित का जन्म तमिलनाडु के तिरूवरूर (तमिलनाडु राज्य में) में तमिल ब्राह्मण दंपति, रामस्वामी दीक्षित (रागा हम्सधवानी के शोधकर्ता) और सुब्बम्मा के यहाँ, सबसे बड़े पुत्र के रूप में हुआ था। ब्राह्मण शिक्षा परम्परा को मन में रखकर, मुत्तु स्वामि ने संस्कृत भाषा, वेद और अन्य मुख्य धार्मिक ग्रन्थों को सीखा व उनका गहन अध्ययन किया। उनको प्रारम्भिक शिक्षा उनके पिता से मिली थी। कुछ समय बाद मुत्तुस्वामी संगीत सीखने हेतु महान् सन्त चिदम्बरनाथ योगी के साथ बनारस या वाराणसी गए और वहां 5 साल तक सीखने व अध्ययन का दौर चलता रहा। गुरु ने उन्हें मन्त्रोपदेश दिया व उनको हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा दी। गुरु के देहान्त के बाद मुत्तुस्वामी दक्षिण भारत को लौटे।


संगीत

        पौराणिक कथा के अनुसार, मुत्तुस्वामी के गुरु उन्हें तिरुट्टनी (चेन्नई के पास एक मंदिर का शहर) की यात्रा करने के लिए कहा। वहां, जब वे ध्यान मुद्रा में बैठे थे, तभी एक बूढ़ा आदमी उनके पास आया और मुंह खोलने के लिए कहा। बूढ़े आदमी उनके मुंह में शक्कर की मिठाई रख गायब हो गया। जैसे ही उन्होंने अपना मुंह खोला, उसे मुरुगन देवता का दृष्टांत हुआ, और उसके बाद ही मुत्तुस्वामी ने अपनी पहली रचना "श्री नाथादी गुरूगुहो" को राग मेयामलवागोला में गाया।

        इस गीत ने भगवान (और/या गुरु) को संस्कृत में पहली विभक्ति में संबोधित किया, बाद में दीक्षित ने भगवान के सभी आठ अवतारों पर कृतियों की रचना की। ये ज्यादातर संप्रदाय/अनुग्रहवादी रूप में मुरुगन की स्तुति करने वाले उपधाराओं में थे।

        फिर मुत्तुस्वामी तीर्थाटन के निकल गये और कांची, तिरुवन्नमलई, चिदंबरम, तिरुपति और कालहस्ती, श्रीरंगम के मंदिरों की यात्रा और वहाँ कृतियों की रचना की और तिरुवारूर लौट आये।

        मुथुस्वामी दीक्षित को वीणा पर प्रवीणता प्राप्त थी, और वीणा का प्रदर्शन उनकी रचनाओं में स्पष्ट देखा जा सकता है, विशेषकर गमन में। उनकी कृति बालगोपाल में, उन्होंने खुद को वीणा गायक के रूप में परिचय दिया।


भारतीय संगीत को आगे बढ़ाने में इनका योगदान

Muthuswami Dikshitar ने अपने जीवनकल में विभिन्न प्रकार की संगीत से सम्बंधित रचनायें की. इनमें से कुछ प्रमुख रचनाएं हैं – षोडश गणपति कीर्ति, गुरुगुहा विभक्ति कीर्ति, कमलाम्ब नववर्ण कीर्ति, नवग्रह कीर्ति, निलोत्पलाम्ब विभक्ति कीर्ति, पंचलिंग क्षेत्र कीर्ति, राम विभक्ति कीर्ति, अभायाम्ब विभक्ति कीर्ति तथा अन्य रचनाएं.

        इनके उत्कृष्ट संगीत तथा काव्य रचनाओं के संदर्भ में अनेक जनश्रुतियां प्रचलित हैं. एक जनश्रुति के अनुसार एक बार वे अपना ध्यानयोग दक्षिण भारत के तिरुत्तनी मंदिर में कर रहे थे, तभी एक व्यक्ति ने इन्हें अपना मुंह खोलने को कहा और मुंह में चीनी (मीठी वस्तु) का एक टुकड़ा डाल दिया तथा तुरंत अंतर्ध्यान हो गया. इसके बाद जब इन्होंने अपना मुंह खोला तो मुरुगा देवता का कल्याणकारी सन्देश इनके मुख से निकला. इससे बहुत खुश होकर इन्होंने अपनी रचना ‘श्री नाथादी गुरुगुहो’ को ‘मायामालावागोवला’ राग में गाना शुरू किया. इसके बाद इन्होंने मुरुगा देवता के लिए बहुत से छोटे-छोटे गीत-संगीत की रचना भी की. इसी प्रकार इन्होंने बहुत से धार्मिक स्थानों जैसे- कांची, तिरुवन्नामलाई, चिदम्बरम्, तिरुपति और कलाहस्थी का भ्रमण किया.

        देश के विभिन्न स्थानों का भ्रमण करने के बाद जब वे अपने घर वापस आए तो संगीत के वाद्ययंत्रों वीणा और वायलिन में महारथ हासिल कर चुके थे. इनकी प्रत्येक रचनाएं अन्य तत्कालीन रचनाकारों और कलाकारों से अलग थीं. इनमें से कुछ प्रमुख राग हैं- कमलाम्बा नववर्ण, नवग्रह कीर्ति, निलोत्पलम्ब कीर्ति और मेलाकार्थ राग. इनकी अधिकांश रचनाएं संस्कृत में थीं, जबकि इनके समक्ष त्यागराज की रचनाएं तेलगु में थीं.

        इनके प्रमुख शिष्यों में शिवानंदम, पोंनाय्या, चिन्नाय्या और वादिवेलु थे. इनके शागिर्दों ने बाद में इनके सम्मान में एक ‘नवरत्न माला’ की रचना की, जिसने आगे चलकर भरतनाट्यम के माध्यम से भातीय शास्त्रीय नृत्य के निर्माण में मुख्य भूमिका निभायी.


कर्नाटक शैली

कर्नाटक शास्त्रीय शैली में रागों का गायन अधिक तेज और हिन्दुस्तानी शैली की तुलना में कम समय का होता है। त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षितार और श्यामा शास्त्री को कर्नाटक संगीत शैली की त्रिमूर्ति कहा जाता है, जबकि पुरंदर दास को अक्सर कर्नाटक शैली का पिता कहा जाता है। कर्नाटक शैली के विषयों में पूजा-अर्चना, मंदिरों का वर्णन, दार्शनिक चिंतन, नायक-नायिका वर्णन और देशभक्ति शामिल हैं।