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संत

समर्थ स्वामी रामदास जीवनी - Biography of Samarth Ramdas in Hindi Jivani


  समर्थ स्वामी रामदास का जन्म रामनवमी 1608 में गोदातट के निकट ग्राम जांब (जि. जालना) में हुआ। पिता सूर्याजीपंत ठोसर ग्राम कुलकर्णी (राजस्व अधिकारी) थे, माता का नाम राणूबाई था। कुल में 21 पीढ़ी से सूर्योपासना परंपरा थी। कुटुंब में दो पुत्र थे- ज्येष्ठ गंगाधर व कनिष्ठ नारायण (समर्थ रामदास)। जब आठ वर्ष के नारायण को एकांत में सचिंत देख माँ ने पूछा, 'बेटा, चिंता किसकी करता है?' उत्तर था, 'माँ, चिंता करूँ विश्व की।' उत्तर को बचपना समझ माँ भूल गई, परंतु आगे और भी अतर्क्य घटित हुआ।


        जब 12 वर्ष की आयु में विवाह की बात पर नारायण ने कहा, 'हमें आश्रम (गृहस्थी) करना नहीं।' माँ ने इसे भी बचपना समझ विवाह रचाया व आज्ञा दी, 'जा के वेदी पर खड़ा हो।' नारायण ने आज्ञा तो मानी, परंतु ज्योंही, 'वधु-वर्यो सावधान' घोष हुआ, तो चरित्रकार कहते हैं, 'द्विज कहे सावधान। सुने मात्र नारायण। और करे पलायन। मंडप से'- वह 'दूल्हा' फुर्ती से भागा, ढूँढने पर भी न मिला और गोदातट पर बसी नासिक के टाकळी गाँव में जाकर भिक्षा माँग रहने लगा (1620)। उनका कार्यक्रम था प्रातः शुद्ध होकर जप, व्यायाम, भिक्षा व अध्ययन। विशेष यह कि किसी के शिष्य न थे। बारह वर्ष बाद उनका व्यक्तित्व प्रखरतापूर्ण दिखने लगा।


        बलवान व चपल देह, शस्त्र-शास्त्र व अश्व चालन में निपुण, तीव्र बुद्धि, साहित्यसृजन क्षमता, व्यवहार व संगठन में कुशल- ऐसा यह व्यक्तित्व था समर्थ रामदासजी ने विचार किया कि हमारे समाज में इतनी कायरता आ गई है । पहले तो समाज से कायरता दूर करनी होगी । इस प्रकार समर्थ रामदास स्वामी ने समाज में स्वतंत्रता के विषय में वैचारिक क्रान्ति का अलख जगाने का कार्य प्रारंभ कर दिया । रामदास जी ने बाल्मीकि की पूरी रामायण अपने हाथ से लिखी | यह पाण्डुलिपि आज भी धुबलिया के श्री एस एस देव के संग्रलाई मे सुरक्षित है | रामदास जी के हजारो शिष्यों और अम्बा जी उनकी हर प्रकार से सेवा करते और उनके वचनों को कलमबद्ध करते -



एक सच्ची घटना :


        एक घनी व्यक्ति श्री अग्निहोत्री की मृत्यु हो गयी अग्निहोत्री जी की पत्नी ने सती होने का प्राण लिया था | अत वह समस्त अभुश्नो से सुसजित अपने पति की चिंता पर अपने को बलिदान करने जा रही थी | तभी एक संत उधर से गुजरे और बिना शव को देखी उस महिला के प्रदुम करने पर उसको आशीर्वाद दी डाला "अस्तापुत्र सोभागय्वती भव " उसने रोते-रोते संत को उधर शव की और देखने का संकेत पर संत ने पास की बह रही गोदावरी नदी से चुलू भर पानी लिया और ईश्वर से प्राथना करते हुई वह जल शव पर झिड़क दिया मुर्दे मे जान आ गयी और अग्निहोत्री जी उठ गये | समर्थ गुरु रामदास जी ने अपना समस्त जीवन रास्ट्र को अर्पित कर दिया |



जीवन का लक्ष्य :


        आख्यायिका है कि 12 वर्ष की अवस्था में अपने विवाह के समय "शुभमंगल सावधान" में "सावधान" शब्द सुनकर नारायण विवाह के मंडप से निकल गए और टाकली नामक स्थान पर श्री रामचंद्र की उपासना में संलग्न हो गए। उपासना में 12 वर्ष तक वे लीन रहे। यहीं उनका नाम रामदास पड़ा। इसके बाद 12 वर्ष तक वे भारतवर्ष का भ्रमण करते रहे। इस प्रवास में उन्होंने जनता की जो दुर्दशा देखी, उससे उनका हृदय संतप्त हो उठा। उन्होंने मोक्ष साधना के स्थान पर अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे।

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        कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्होंने 1100 मठ तथा अखाड़े स्थापित कर स्वराज्य स्थापना के लिए जनता को तैयार करने का प्रयत्न किया। इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्री शिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्य स्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उस समय महाराष्ट्र में मराठों का शासन था। शिवाजी महाराज रामदासजी के कार्य से बहुत प्रभावित हुए तथा जब इनका मिलन हुआ, तब शिवाजी महाराज ने अपना राज्य रामदासजी की झोली में डाल दिया। रामदास ने महाराज से कहा- "'यह राज्य न तुम्हारा है न मेरा। यह राज्य भगवान का है, हम सिर्फ़ न्यासी हैं।" शिवाजी समय-समय पर उनसे सलाह-मशविरा किया करते थे।



तीर्थयात्रा और भारतभ्रमण :


        आत्मसाक्षात्कार होने के बाद समर्थ रामदास तीर्थयात्रा पर निकल पड़े| 12 वर्ष तक वे भारतवर्ष का भ्रमण करते रहे। घुमते घुमते वे हिमालय आये। हिमालय का पवित्र वातावरण देखने के बाद मूलतः विरक्त स्वभाव के रामदास जी के मन का वैराग्यभाव जागृत हो गया। अब आत्मसाक्षात्कार हो गया, ईश्वर दर्शन हो गया, तो इस देह को धारण करने की क्या जरुरत है ?ऐसा विचार उनके मन में आया। उन्होंने खुद को १००० फीट से मंदाकिनी नदी में झोंक दिया।


        लेकिन उसी समय प्रभुराम ने उन्हें ऊपर ही उठ लिया और धर्म कार्य करने की आज्ञा दी। अपने शरीर को धर्म के लिए अर्पित करने का निश्चय उन्होंने कर दिया। तीर्थ यात्रा करते हुए वे श्रीनगर आए। वहाँ उनकी भेंट सिखोंके के गुरु हरगोविंद जी महाराज से हुई। गुरु हरगोविंद जी महाराज ने उन्हें धर्म रक्षा हेतु शस्त्र सज्ज रहने का मार्गदर्शन किया। इस प्रवस में उन्होंने जनता की जो दुर्दशा देखी उससे उनका हृदय संतप्त हो उठा।


        उन्होंने मोक्षसाधना के साथ ही अपने जीवन का लक्ष्य स्वराज्य की स्थापना द्वारा आततायी शासकों के अत्याचारों से जनता को मुक्ति दिलाना बनाया। शासन के विरुद्ध जनता को संघटित होने का उपदेश देते हुए वे घूमने लगे। इसी प्रयत्न में उन्हें छत्रपति श्रीशिवाजी महाराज जैसे योग्य शिष्य का लाभ हुआ और स्वराज्यस्थापना के स्वप्न को साकार होते हुए देखने का सौभाग्य उन्हें अपने जीवनकाल में ही प्राप्त हो सका। उन्होंने शके 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली।