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संत

महावीर जीवनी - Biography of Mahavira in Hindi Jivani

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   महावीर जैन धर्म में वर्तमान अवसर्पिणी काल के चौंबीसवें (२४वें) तीर्थंकर है। भगवान महावीर का जन्म करीब ढाई हजार साल पहले (ईसा से 599 वर्ष पूर्व), वैशाली के गणतंत्र राज्य क्षत्रिय कुण्डलपुर में हुआ था। महावीर को 'वर्धमान', वीर', 'अतिवीर' और 'सन्मति' भी कहा जाता है। तीस वर्ष की आयु में गृह त्याग करके, उन्होंने एक लँगोटी तक का परिग्रह नहीं रखा। हिंसा, पशुबलि, जात-पात का भेद-भाव जिस युग में बढ़ गया, उसी युग में भगवान महावीर का जन्म हुआ।


        उन्होंने दुनिया को सत्य, अहिंसा का पाठ पढ़ाया। तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अहिंसा को सबसे उच्चतम नैतिक गुण बताया। उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत बताए, जो है- अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह, अचौर्य (अस्तेय) और ब्रह्मचर्य। सभी जैन मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका को इन पंचशील गुणों का पालन करना अनिवार्य है| महावीर ने अपने उपदेशों और प्रवचनों के माध्यम से दुनिया को सही राह दिखाई और मार्गदर्शन किया। 


प्रारंभिक जीवन :


        भगवान महावीर, ऋषभदेव से प्रारंभ हुई वर्तमान चौबीसी के अंतिम तीर्थंकर थे। प्रभु महावीर प्रारंभिक तीस वर्ष राजसी वैभव एवं विलास के दलदल में 'कमल' के समान रहे। मध्य के बारह वर्ष घनघोर जंगल में मंगल साधना और आत्म जागृति की आराधना में, बाद के तीस वर्ष न केवल जैन जगत या मानव समुदाय के लिए अपितु प्राणी मात्र के कल्याण एवं मुक्ति मार्ग की प्रशस्ति में व्यतीत हुए।


        महावीर स्वामी का जीवन काल 599 ई. ईसा पूर्व से 527 ई. ईसा पूर्व तक माना जाता है। इनकी माता का नाम 'त्रिशला देवी' और पिता का नाम 'सिद्धार्थ' था। बचपन में महावीर का नाम 'वर्धमान' था, लेकिन बाल्यकाल से ही यह साहसी, तेजस्वी, ज्ञान पिपासु और अत्यंत बलशाली होने के कारण 'महावीर' कहलाए। भगवान महावीर ने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया था, जिस कारण इन्हें 'जीतेंद्र' भी कहा जाता है।


        कलिंग नरेश की कन्या 'यशोदा' से महावीर का विवाह हुआ। किंतु 30 वर्ष की उम्र में अपने ज्येष्ठबंधु की आज्ञा लेकर इन्होंने घर-बार छोड़ दिया और तपस्या करके 'कैवल्य ज्ञान' प्राप्त किया। वो कुंडलपुर के निकट संदावन नामक एक बाग़ में गये |वहा पर उन्होंने बिना कपड़ो के अशोक के पेड़ के नीचे कठोर तपस्या की. आचारंग सूत्र में उनके कठिनाइयों और अपमान को दर्शाया गया है | बंगाल के पूर्वी भाग में वो बड़ी पीडाओ से गुजरे | बच्चो ने उन पर पत्थर फेंके और अक्सर लोगो ने उनको अपमानित किया |


        कल्प सूत्र के अनुसार अस्तिग्राम , चम्पापुरी,प्रस्तिचम्पा, वैशाली ,वाणीजग्रम , नालंदा ,मिथिला ,भद्रिका ,अलाभिका ,पनिताभूमि ,श्रस्व्ती और पवनपुरी में उन्होंने अपने तपस्वी जीवन के 42 मानसून गुजारे. महावीर ने पार्श्वनाथ के आरंभ किए तत्वज्ञान को परिमार्जित करके उसे जैन दर्शन का स्थायी आधार प्रदान किया। महावीर ऐसे धार्मिक नेता थे, जिन्होंने राज्य का या किसी बाहरी शक्ति का सहारा लिए बिना, केवल अपनी श्रद्धा के बल पर जैन धर्म की पुन: प्रतिष्ठा की। आधुनिक काल में जैन धर्म की व्यापकता और उसके दर्शन का पूरा श्रेय महावीर को दिया जाता है।


        12 वर्षो की कठिन तपस्या के बाद 43 वर्ष की उम्र में उनको केवल जन्म की अवस्था प्राप्त हुयी जिसका अर्थ है अलगाव-एकीकरण का ज्ञान | इससे उन्हें सर्वज्ञता का तात्पर्य का ज्ञान हुआ और बौधिक ज्ञान से छुटकारा मिला | इनको ये ज्ञान रजुप्लिका नदी के किनारे एक शाल के पेड़ के नीचे हुआ |सूत्रक्रितंग में माहवीर की सारी खूबियों और ज्ञान को बताया गया है | 30 साल के सर्वज्ञता के बाद महावीर भारत और अन्यदेशो में घुमे और दर्शनशास्र का ज्ञान दिया |


        परम्परा के अनुसार महावीर के 14,000 योगी , 36,000 मठवासिनी, 159,000 श्रावकand 318,000 श्राविका उनके अनुयायी बने | कुछ शाही परिवार भी उनके अनुयायाई बने | जैन ग्रंथो के अनुसार महवीर ने मोक्ष प्राप्त किया क्योंकि उनकी आत्मा सिद्ध हो गयी थी | उसी दिन उनके मुख्य अनुयायी गांधार ने केवल जन्म लिया | मह्पुरान के अनुसार तीर्थंकरो के निर्वाण के बाद देवताओ ने उनका अंतिम संस्कार किया |


        महावीर स्वामी के अनेक नाम हैं- 'अर्हत', 'जिन', 'निर्ग्रथ', 'महावीर', 'अतिवीर' आदि। इनके 'जिन' नाम से ही आगे चलकर इस धर्म का नाम 'जैन धर्म' पड़ा। जैन धर्म में अहिंसा तथा कर्मों की पवित्रता पर विशेष बल दिया जाता है। उनका तीसरा मुख्य सिद्धांत 'अनेकांतवाद' है, जिसके अनुसार दूसरों के दृष्टिकोण को भी ठीक-ठाक समझ कर ही पूर्ण सत्य के निकट पहुँचा जा सकता है। भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह की साक्षात मूर्ति थे। वे सभी के साथ सामान भाव रखते थे और किसी को कोई भी दुःख देना नहीं चाहते थे। अपनी श्रद्धा से जैन धर्म को पुनः प्रतिष्ठापित करने के बाद कार्तिक मास की अमावस्या को दीपावली के दिन पावापुरी में भगवान महावीर ने निर्वाण को प्राप्त किया।


        अहिंसा और अपरिग्रह की वह साक्षात मूर्ति थे। वह सबको समान मानते थे और किसी को भी कोई दु:ख देना नहीं चाहते थे। अपनी इसी सोच पर आधारित एक नूतन विज्ञान भगवान महावीर ने विश्व को दिया। यह था परितृप्ति का विज्ञान। इच्छा और आवश्यकता प्रत्येक प्राणी के साथ जुड़ी हैं। जब व्यक्ति अपने जीवन को इच्छा से संचालित करता है तो निरन्तर नई आवश्यकताएँ पैदा होने का सिलसिला चल निकलता है। जो मानव के लिए कष्टों का घर होता है। इच्छा आवश्यकता को और आवश्यकता इच्छा को जन्म देती है।


        भगवान महावीर इस अन्तहीन सिलसिले को समाप्त करना चाहते थे। उन्होंनें कहा कि प्राणी अपने लिए सुख चाहता है, दु:ख किसी को भी प्रिय नहीं। इसलिए संसार का कोई भी प्राणी वाध्य नहीं है। यह सिद्धांत अहिंसा की प्रासंगिकता को त्रैकालिक सिद्ध करने में सक्षम हुआ। उन्होंने शरीर को कष्ट देने को ही अहिंसा नहीं माना बल्कि मन, वचन कर्म से भी किसी को आहत करना उनकी दृष्टि से अहिंसा ही है। भगवान महावीर के विचारों को किसी काल, देश अथवा सम्प्रदाय की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।


        यह प्राणी मात्र का धर्म है। महावीर ने धर्म का मर्म अनेकान्त और अहिंसा बताया। उन्होंने कहा धर्म का हृदय अनेकान्त है और अनेकान्त का हृदय है समता। समता का अर्थ है परस्पर सहयोग, समन्वय, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहजता। उन्होंने कहा कि सबकी बात शान्तिपूर्वक सुनी जानी चाहिए यदि ऐसा होगा तो घृणा, द्वेष, ईर्ष्या का स्वयं ही नाश हो जाएगा। उन्होंने साधन और साध्य दोनों की पवित्रता और शुद्धि पर बल दिया। 


वैराग्य :


        महावीर स्वामी के माता पिता की मृत्यु के पश्चात उनके मन मे वैराग्य लेने की इच्छा जागृत हुई, परंतु जब उन्होने इसके लिए अपने बड़े भाई से आज्ञा मांगी तो उन्होने अपने भाई से कुछ समय रुकने का आग्रह किया| तब महावीर स्वामी जी ने अपने भाई की आज्ञा का मान रखते हुये 2 वर्ष पश्चात 30 वर्ष की आयु मे वैराग्य लिया. इतनी कम आयु में घर का त्याग कर ‘केशलोच’ के साथ जंगल में रहने लगे.


        वहां उन्हें 12 वर्ष के कठोर तप के बाद जम्बक में ऋजुपालिका नदी के तट पर एक साल्व वृक्ष के नीचे सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ. इसके बाद उन्हें ‘केवलिन’ नाम से जाना गया तथा उनके उपदेश चारों और फैलने लगे. बडे-बडे राजा महावीर स्वा‍मी के अनुयायी बने उनमें से बिम्बिसार भी एक थे. 30 वर्ष तक महावीर स्वामी ने त्याग, प्रेम और अहिंसा का संदेश फैलाया और बाद में वे जैन धर्म के चौबीसवें तीर्थंकर बनें और विश्व के श्रेष्ठ महात्माओं में शुमार हुए.


        तीस वर्ष की आयु मे महावीर स्वामी ने पूर्ण संयम रखकर श्रमण बन गये, तथा दीक्षा लेते ही उन्हे मन पर्याय का ज्ञान हो गया. दीक्षा लेने के बाद महावीर स्वामी जी ने बहुत कठिन तापस्या की| और विभिन्न कठिन उपसर्गों को समता भाव से ग्रहण किया. साधना के बारहवे वर्ष मे महावीर स्वामी जी मेढ़िया ग्राम से कोशम्बी आए और तब उन्होने पौष कृष्णा प्रतिपदा के दिन एक बहुत ही कठिन अभिग्रह धारण किया. इसके पश्चात साढ़े बारह वर्ष की कठिन तपस्या और साधना के बाद ऋजुबालुका नदी के किनारे महावीर स्वामी जी को शाल वृक्ष के नीचे वैशाख शुक्ल दशमी के दिन केवल ज्ञान- केवल दर्शन की उपलब्धि हुई.


महावीर स्वामी पंचशील सिद्धांत व शिक्षाएं :


1. सत्य – महावीर जी कहते हैं कि सत्य सबसे बलवान है और हर इंसान को किसी भी परिस्थिति में सत्य का साथ नहीं छोड़ना चाहिए। सदा सत्य बोलो।

2. अहिंसा – दूसरों के प्रति हिंसा की भावना नहीं रखनी चाहिए। जितना प्रेम हम खुद से करते हैं उतना ही प्रेम दूसरों से भी करें। अहिंसा का पालन करें

3. अस्तेय – महावीर स्वामी कहते हैं कि दूसरों की चीज़ों को चुराना और दूसरों की चीज़ों की इच्छा करना महापाप है। जो मिला है उसमें संतुष्ट रहें।

4. बृह्मचर्य – महावीर जी कहते हैं कि बृह्मचर्य सबसे कठोर तपस्या है और जो पुरुष इसका पालन करते हैं वो मोक्ष की प्राप्ति करते हैं

5. अपरिग्रह – ये दुनियां नश्वर है। चीज़ों के प्रति मोह ही आपके दुखों का कारण है। सच्चे इंसान किसी भी सांसारिक चीज़ का मोह नहीं करते.


        भगवान महावीर अहिंसा और अपरिग्रह के साक्षात् मूर्ति थे। वे सभी के साथ सामान भाव रखते थे और किसी को कोई भी दुःख देना नहीं चाहते थे। अपनी श्रद्धा से जैन धर्म को पुनः प्रतिष्ठापित करने के बाद कार्तिक अमावस्या दीपावली के दिन पावापुरी में भगवान महावीर ने निर्वाण को प्राप्त किया था।


        भगवान श्री महावीर स्वामी ने जैन धर्म को पुन: स्थापित कर विश्व को एक ऐसी शाखा प्रदान की जो पूर्णत: अहिंसा और मानवता पर आधारित थी। आध्यात्म के साथ महावीर स्वामी जी ने इस धर्म को आगे बढ़ने का भी सपना दिया। महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद जैन धर्म दो संप्रदायों में बंट गया लेकिन बंटने के बाद भी जैन धर्म में व्याप्त स्वामी जी की शिक्षाओं को कोई हानि नहीं हुई है