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मध्वाचार्य भक्ति आन्दोलन के समय के सबसे महत्त्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे। वे 'पूर्णप्रज्ञ' व 'आनंदतीर्थ' के नाम से भी प्रसिद्ध हुए थे। मध्वाचार्य 'तत्त्ववाद' के प्रवर्तक थे, जिसे 'द्वैतवाद' के नाम से भी जाना जाता है। द्वैतवाद, वेदान्त की तीन प्रमुख दर्शनों में से एक है। मध्वाचार्य को वायु का तृतीय अवतार माना जाता है।
इनका जन्म दक्षिण कन्नड जिले के उडुपी शिवल्ली नामक स्थान के पास पाजक नामक एक गाँव में सन् १२३८ ई में हुआ। अल्पावस्था में ही ये वेद और वेदांगों के अच्छे ज्ञाता हुए और संन्यास लिया। पूजा, ध्यान, अध्ययन और शास्त्रचर्चा में इन्होंने संन्यास ले लिया। शंकर मत के अनुयायी अच्युतप्रेक्ष नामक आचार्य से इन्होंने विद्या ग्रहण की और गुरु के साथ शास्त्रार्थ कर इन्होंने अपना एक अलग मत बनाया जिसे "द्वैत दर्शन" कहते हैं। इनके अनुसार विष्णु ही परमात्मा हैं। रामानुज की तरह इन्होंने श्री विष्णु के आयुधों, शंख, चक्र, गदा और पद्म के चिन्हों से अपने अंगों को अंलकृत करने की प्रथा का समर्थन किया। देश के विभिन्न भागों में इन्होंने अपने अनुयायी बनाए। उडुपी में कृष्ण के मंदिर का स्थापन किया, जो उनके सारे अनुयायियों के लिये तीर्थस्थान बन गया। यज्ञों में पशुबलि बंद कराने का सामाजिक सुधार इन्हीं की देन है। 79 वर्ष की अवस्था (सन् 1317 ई) में इनका देहावसान हुआ। नारायण पंडिताचार्य कृत सुमध्वविजय और मणिमंजरी नामक ग्रंथों में मध्वाचार्य की जीवनी ओर कार्यों का पारंपरिक वर्णन मिलता है। परंतु ये ग्रंथ आचार्य के प्रति लेखक के श्रद्धालु होने के कारण अतिरंजना, चमत्कार और अविश्वसनीय घटनाओं से पूर्ण हैं। अत: इनके आधार पर कोई यथातथ्य विवरण मध्वाचार्य के जीवन के संबंध में नहीं उपस्थित किया जा सकता।
देश के विभिन्न भागों में इन्होंने अपने अनुयायी बनाए। उडुपी में कृष्ण के मंदिर का स्थापन किया, जो उनके सारे अनुयायियों के लिये तीर्थस्थान बन गया। यज्ञों में पशुबलि बंद कराने का सामाजिक सुधार इन्हीं की देन है। 79 वर्ष की अवस्था में इनका देहावसान हुआ। नारायण पंडिताचार्य कृत सुमध्वविजय और मणिमंजरी नामक ग्रंथों में मध्वाचार्य की जीवनी ओर कार्यों का पारंपरिक वर्णन मिलता है। परंतु ये ग्रंथ आचार्य के प्रति लेखक के श्रद्धालु होने के कारण अतिरंजना, चमत्कार और अविश्वसनीय घटनाओं से पूर्ण हैं। अत: इनके आधार पर कोई यथातथ्य विवरण मध्वाचार्य के जीवन के संबंध में नहीं उपस्थित किया जा सकता।
भारत में भक्ति आन्दोलन के समय के सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिकों में से एक थे। वे पूर्णप्रज्ञ व आनंदतीर्थ के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। वे तत्ववाद के प्रवर्तक थे जिसे द्वैतवाद के नाम से जाना जाता है। द्वैतवाद, वेदान्त की तीन प्रमुख दर्शनों में एक है। मध्वाचार्य को वायु का तृतीय अवतार माना जाता है
मध्वाचार्य कई अर्थों में अपने समय के अग्रदूत थे, वे कई बार प्रचलित रीतियों के विरुद्ध चले गये हैं। उन्होने द्वैत दर्शन का प्रतिपादन किया। इन्होने द्वैत दर्शन के ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखा और अपने वेदांत के व्याख्यान की तार्किक पुष्टि के लिये एक स्वतंत्र ग्रंथ ‘अनुव्याख्यान’ भी लिखा। श्रीमद्भगवद्गीता और उपनिषदों पर टीकाएँ, महाभारत के तात्पर्य की व्याख्या करनेवाला ग्रंथ महाभारततात्पर्यनिर्णय तथा श्रीमद्भागवतपुराण पर टीका ये इनके अन्य ग्रंथ है। ऋग्वेद के पहले चालीस सूक्तों पर भी एक टीका लिखी और अनेक स्वतंत्र प्रकरणों में अपने मत का प्रतिपादन किया
मध्वाचार्य के प्रमुख सिद्धांत
मध्व के अनुसार ब्रह्म सगुण और सविशेष है। ब्रह्म को ही विष्णु या नारायण कहा जाता है। निरपेक्ष सत् सर्वगुण संपन्न ब्रह्म ही परम तत्व है। उसी को परब्रह्म, विष्णु, नारायण, हरि, परमेश्वर, ईश्वर, वासुदेव, परमात्मा आदि नामों से भी पुकारा जाता है। वह चैतन्य स्वरूप है, पर निर्गुण नहीं, वह जगत् का निमित्त कारण है। उपादान कारण नहीं, ब्रह्म अपनी इच्छा (माया) से जगत् की सृष्टि करता है। जीवों और जगत् की प्रतीति ब्रह्म के अधीन है, अत: वह स्वतंत्र माना जाता है, जबकि जीव और जगत् अस्वतंत्र हैं। विष्णु ही उत्पत्ति, संहार नियमन, ज्ञान आवरण, बन्ध तथा मोक्ष के कर्ता हैं। विष्णु शरीरी होते हुए भी नित्य तथा सर्वतन्त्र स्वतंत्र हैं। परमात्मा की शक्ति लक्ष्मी है। लक्ष्मी भी भगवान की भांति नित्य मुक्ता है और दिव्य विग्रहधारिणी होने के कारण अक्षरा है।
मध्व के अनुसार ब्रह्म मन-वाणी के अगोचर हैं- इसका तात्पर्य यही है कि जिस तरह पर्वत को देखने पर भी उसके पूर्ण रूप से दर्शन नहीं होते, उसी प्रकार वाणी आदि द्वारा भी ब्रह्म को पूर्ण रूप से व्यक्त नहीं किया जा सकता। श्री मध्व ने शंकराचार्य के मायावाद का खंडन करते हुए कहा कि जिस प्रकार प्रकाश और अंधकार एक साथ नहीं रह सकते, उसी प्रकार सच्चिदानंद ब्रह्म का अविद्या से प्रभावित होना असंगत है, यदि अविद्या सत् है तो अद्वैत सिद्धांत ग़लत है और अविद्या असत् है तो उसका कुछ भी प्रभाव कैसे पड़ सकता है।
मध्वाचार्य के अनुसार जीव ब्रह्म से भिन्न है, किन्तु अंश होने के कारण यह अंशी पर अवलम्बित है। जीव में भी सत्, चित् तथा आनन्द का निवास है।
मूर्तियों की स्थापना
मूर्तियों की स्थापना इन्होंने अनेकों प्रकार की योगसिद्धियां प्राप्त की थीं और इनके जीवन में समय-समय पर वे प्रकट भी हुईं। इन्होंने अनेकों मूर्तियों की स्थापना की और इनके द्वारा प्रतिष्ठित विग्रह आज भी विद्यमान हैं। श्रीबदरीनारायण में व्यास जी ने इन्हें शालग्राम की तीन मूर्तियां भी दी थीं, जो इन्होंने सुब्रह्मण्य, उडूपि और मध्यतल में पधरायीं। एक बार किसी व्यापारी का जहाज़ द्वारका से मलाबार जा रहा था। तुलुब के पास वह डूब गया। उसमें गोपीचन्दन से ढकी हुई एक भगवान श्रीकृष्ण की सुन्दर मूर्ति थी। मध्वाचार्य को भगवान की आज्ञा प्राप्त हुई और उन्होंने मूर्तियों को जल से निकालकर उडूपि में उसकी स्थापना की। तभी से वह रजतपीठपुर अथवा उडूपि मध्वमतानुयायियों का तीर्थ हो गया। एक बार एक व्यापारी के डूबते हुए जहाज़ को इन्होंने बचा लिया। इससे प्रभावित होकर वह अपनी आधी सम्पत्ति इन्हें देने लगा। परंतु इनके रोम-रोम में भगवान का अनुराग और संसार के प्रति विरक्ति भरी हुई थी। ये भला, उसे क्यों लेने लगे। इनके जीवन में इस प्रकार के असामान्य त्याग के बहुत-से उदाहरण हैं। कई बार लोगों ने इनका अनिष्ट करना चाहा और इनके लिखे हुए ग्रन्थ भी चुरा लिये। परंतु आचार्य इससे तनिक भी विचलित या क्षुब्ध नहीं हुए, बल्कि उनके पकड़ जाने पर उन्हें क्षमा कर दिया और उनसे बड़ प्रेम का व्यवहार किया। ये निरन्तर भगवत-चिन्तन में संलग्न रहते थे।