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पारसी धर्म या 'जरथुस्त्र धर्म' विश्व के अत्यंत प्राचीन धर्मों में से एक है जिसकी स्थापना आर्यों की ईरानी शाखा के एक प्रोफेट जरथुष्ट्र ने की थी। इसके धर्मावलंबियों को पारसी या जोराबियन कहा जाता है। यह धर्म एकेश्वरवादी धर्म है। ये ईश्वर को 'आहुरा माज्दा' कहते हैं। इस धर्म के संस्थापक जरथुस्त्र थे। जरथुस्त्र का जन्म प्राचीन ईरान में हुआ था। संभवत: ईरान के सिस्तान प्रांत के रेजेज क्षेत्र में जहां खाजेह पर्वत, हमुन झील है। वहीं कहीं आतिश बेहराम मंदिर के अवशेष आज भी विद्यमान है।
पारसी समुदाय द्वारा महात्मा जरथुस्त्र का जन्म दिवस 24 अगस्त को मनाया जाता है। जरथुस्त्र प्रेम और दया की साक्षात मूर्ति थे। समाधि से निवृत्त होकर रोगी की परिचर्या करना, भारपीड़ित पशु का बोझ स्वयं ढोना, वृद्धों को सहारा देना, दृष्टिहीन को मार्ग बताना, भूखे को भोजन और प्यासे को पानी पिलाना इनकी दिनचर्या थी। जरथुस्त्र के देहांत के बाद उनका प्रभाव धीरे-धीरे फैला। सारे ईरान में यह राज्य धर्म बना। इसके अतिरिक्त रूस, चीन, तुर्किस्तान, आरमेनिया एवं हिन्दुकुश तक इसका प्रभाव फैल गया था।
जरथुष्ट्र को ऋग्वेद के अंगिरा, बृहस्पति आदि ऋषियों का समकालिक माना जाता है। वेबदुनिया के शोधानुसार वे ईरानी आर्यों के स्पीतमा कुटुम्ब के पौरुषहस्प के पुत्र थे। उनकी माता का नाम दुधधोवा (दोग्दों) था, जो कुंवारी थी। 30 वर्ष की आयु में जरथुस्त्र को ज्ञान प्राप्त हुआ। उनकी मृत्यु 77 वर्ष 11 दिन की आयु में हुई। महान दार्शनिक नीत्से ने एक किताब लिखी थी जिसका नाम 'दि स्पेक जरथुस्त्र' है।
ग्रंथो के अनुसार, 20 साल कि उम्र में उन्होंने मातापिता को छोड़ दिया और अन्य शिक्षको और अपने खुद के अनुभवों से उन्होंने ज्ञान की प्राप्ति की। 30 साल की उम्र में वसंत महोत्सव के दौरान उन्हें एक रहस्य का अनुभव हुआ। एक नदी के किनारे उन्हें एक चमकदार शक्ति नजर आयी, जिसने स्वयं को वोहू मनः (अच्छा उद्देश) संबोधित किया और उसे अहुरा मजदा ( बुद्धिमान आत्मा ) और अन्य पाच उज्ज्वल आकड़ो के बारे में शिक्षा दी।
जोरास्टर को जल्द ही दो मूल आत्मा के अस्तित्व का भी अहसास हुआ। दूसरी जो थी वो अन्ग्र मैन्यु ( प्रतिकूल आत्मा) थी। उसके साथ आशा (सच) और द्रुज ( झूठ बोलना) ये दो विरोधी संकल्पनाए भी थी
इसलिए उन्होंने तय किया की लोगों को आशा की खोज करने के लिए अपना सारा जीवन बिताएंगे। उन्हें एक और खुलासे का अनुभव हुआ और उस खुलासे में उन्हें और सात अमेशा स्पेन्ता के दर्शन हुए। ग्रंथो और अवेस्ता में उनकी शिक्षा संग्रहित है।
उन्होंने मुक्त इच्छा की शिक्षा दी। अनुष्ठानोमे भ्रामक होमा वनस्पति का इस्तेमाल, बहुदेववाद, धार्मिक अनुष्ठानो का अनुष्ठान, प्राणियों का बलिदान का उन्होंने विरोध किया। और यही नहीं उन्होंने दमनकारी वर्ग व्यवस्था की भी कड़ा विरोध किया जिसके लिए उन्हें स्थानीय अधिकारियो के विरोध सहन करना पड़ा।
आखिरकार 42 साल की उम्र में उन्हें रानी हुतोसा और राजा विश्तास्पा का संरक्षण प्राप्त हुआ।( शाहनामा के अनुसार ये बक्ट्रिया के थे।) ये दोनों ज़ोरोस्त्रिंवाद के प्रारंभिक अनुयार्यी थे।
जो धर्म उन्होंने सिखाया वो चारो तरफ़ फ़ैल चूका था और 77 की आयु में उनकी मृत्यु हुई। उस धर्म का प्रसार सारे पर्शिया में हो चूका था। आज विश्व के सबसे पुराने धर्मो में से एक धर्म माना जाता है। ज़ोरोआस्टर एक ऐसे भविष्यद्वक्ता है जिन्होंने मानव जाती को अधिक उचाई तक पहुचाने का कार्य किया है।
दर्शन एवं शिक्षाएँ
इस मत का निष्कर्ष "अंश" (asha) के नियमों की उदात्त भावना है। सदाचार तो "अंश" (asha) शब्द की अस्पष्ट व्याख्या मात्र है जो व्यवस्था, संगति, अनुशासन, एकरूपता का सूचक है और सब प्रकार की पवित्रता, सत्यशीलता और परोपकार के सभ रूपों और क्रियाआं को समेटती है। लोगों के आगे ईश्वर का गुणमान करते हुए पैंगबर ने उनसे कहा कि किसी मत को आँख बंद कर मत स्वीकार करो, विवेक की सहायता से उसे स्वीकार या अस्वीकार करो। यह विलक्षण बात है। जो लोग "वोहू महह" के शब्द सुन पाते हैं और उसके अनुसार कार्य करते हैं, वे स्वास्थ्य और अमरत्व प्राप्त करते हैं। भावी जीवन की इस कल्पना से मृत्यु के बाद जीवन का विचार उत्पन्न हुआ जिसकी शिक्षा पुरानी पोथी के अंतिम भाग में दी गई है।
विचारों की गड़बड़ और महात्मा के सुचिंतित दर्शन की प्रक्रिया में सद् और असद् के विरोध की भ्रांत धारणा के कारण यूरोपीय लेखकों ने जरथुश्त्र के मत को द्वैतधर्म कहा है। इस प्रकार की कल्पना ने आवेस्ता सिद्धांत के मूल तत्वों को ही नजरअंदाज कर दिया है। यूरोपीय और जोरोष्ट्री विद्वानों के अनुसंधानों ने अब निश्चयपूर्वक यह प्रमाणित कर दिया है कि जरथुश्त्र का विचारदर्शन शुद्ध अद्वैतवाद पर स्थित है और दुरात्मा के व्यक्तित्व का उल्लेख शुद्ध रूपकात्मक उल्लेख के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। किंतु इसमें अजोरौष्ट्रीय लेखकों का उतना दोष नहीं है जितना कि परवर्तीय युग के जोरोष्ट्रियनों का है जो स्वयं अपने पैगंबर की वास्तविक शिक्षाओं को भूल गए थे, जिन्होंने दर्शन को अध्यात्म से मिलाने की गड़बड़ की और आहूर मज्द के समकक्ष और समकालीन दुरात्मा के अस्तित्व के विश्वास को जन्म दिया।