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पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य का जन्म 20 सितम्बर,1911 (आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी संवत् 1967) को उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद के आंवलखेड़ा गांव में हुआ था। उनका बाल्यकाल गांव में ही बीता। उनके पिता श्री पं.रूपकिशोर जी शर्मा जी जमींदार घराने के थे और दूर-दराज के राजघरानों के राजपुरोहित, उद्भट विद्वान, भगवत् कथाकार थे।
साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा, जब वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराइयों में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे । वह एक बार हिमालय की ओर भाग निकले और बाद में पकडे जाने पर बोले कि हिमालय ही उनका घर है और वहीं वे जा रहे थे ।
महामना पं.मदनमोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी। पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन् 1926 में ही लोगों ने उनके अंदर के अवतारी रूप को पहचान लिया था। उन्हें जाति-पाँति का कोई भेद नहीं था। वह कुष्ठ रोगियों की भी सेवा करते थे। इस महान संत ने नारी शक्ति व बेरोजगार युवाओं के लिए गाँव में ही एक बुनताघर स्थापित किया व अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया।
पूज्य गुरुदेव ने युग निर्माण के मिशन को गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान के माध्यम से आगे बढ़ाया। वह कहते थे कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना- जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना । इसी से वह सार्मथ्य विकसित होगी जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी ।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागिता
भारत के परावलम्बी होने की पीड़ा भी उन्हे उतनी ही सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आनेदशानुसार तपकर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी। उनके इस असमंजस को गुरुसत्ता ने ताड़कर परावाणी से उनका मार्गदर्शन किया कि युगधर्म की महत्ता व समय की पुकार देख-सुनकर तुम्हें अन्य आवश्यक कार्यों को छोड़कर अग्निकाण्ड में पानी लेकर दौड़ पड़ने की तरह आवश्यक कार्य भी करने पड़ सकते हैं। इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने का भी संकेत था। १९२७ से १९३३ तक का समय उनका एक सक्रिय स्वयं सेवक- स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता, जिसमें घरवालों के विरोध के बावजूद पैदल लम्बा रास्ता पार कर वे आगरा के उस शिविर में पहुँचे, जहाँ शिक्षण दिया जा रहा था, अनेकानेक मित्रों-सखाओं-मार्गदर्शकों के साथ भूमिगत हो कार्य करते रहे तथा समय आने पर जेल भी गये। छह-छह माह की उन्हें कई बार जेल हुई। जेल में भी जेल के निरक्षर साथियों को शिक्षण देकर व स्वयं अँग्रेजी सीखकर लौटै। आसनसोल जेल में वे पं.जवाहरलाल नेहरू की माता श्रीमती स्वरूपरानी नेहरू, श्री रफी अहमद किदवई, महामना मदनमोहन मालवीय जी, देवदास गाँधी जैसी हस्तियों के साथ रहे व वहाँ से एक मूलमंत्र सीखा जो मालवीय जी ने दिया था कि जन-जन की साझेदारी बढ़ाने के लिए हर व्यक्ति के अंशदान से, मुट्ठी फण्ड से रचनात्मक प्रवृत्तियाँ चलाना। यही मंत्र आगे चलकर एक घंटा समयदान, बीस पैसा नित्य या एक दिन की आय एक माह में तथा एक मुट्ठी अन्न रोज डालने के माध्यम से धर्म घट की स्थापना का स्वरूप लेकर लाखों-करोड़ों की भागीदारी वाला गायत्री परिवार बनता चला गया, जिसका आधार था - प्रत्येक व्यक्ति की यज्ञीय भावना का उसमें समावेश।
राजनीतिक कार्य
श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के प्रभाव से राजनीति में प्रवेश करने के बाद शर्माजी धीरे-धीरे महात्मा गांधी के अत्यंत निकट हो गए थे। 1942 से पूर्व के आठ-दस वर्षों तक वे प्रति वर्ष दो मास सेवाग्राम में गांधीजी के पास रहा करते थे। बापू का उन पर अटूट विश्वास था। आचार्य कृपलानी, श्री पुरुषोत्तमदास टंडन, पं. गोविंदवल्लभ पंत, डॉ. कैलासनाथ काटजू आदि नेताओं के साथ उनके घनिष्ठ संबंध थे। 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन के समय शर्माजी को उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) तथा मध्य प्रदेश का प्रभारी नेता नियुक्त किया गया था। इसके पूर्व मैनपुरी षड्यंत्र केस में उनका सहयोग रहा था। विचारों तथा कर्मों से क्रांतिकारी शर्माजी 1942 के आगरा षड्यंत्र केस के प्रमुख अभियुक्त थे। केस का नाम था King Emperor v/s Sri Ram Sharma and others. इस मुकदमे में 14 अभियुक्त थे। शर्माजी के बड़े पुत्र रमेशकुमार शर्मा, उनकी बेटी कमला शर्मा के साथ उनके बड़े भाई पं. बालाप्रसाद शर्मा पकड़े गए थे। अंत में 1945 में सब लोग जेल से रिहा हुए। गिरफ्तारी और जेल-प्रवास के दौरान शर्माजी के तीन पुत्रों की मृत्यु हो गई और पुलिस की मारपीट के कारण उनका एक कान भी फट गया था। जेल से छूटने के बाद वे सीधे गांधीजी के पास गए थे। महात्मा गांधी की हत्या के बाद वे लेखन कार्य में ही अधिक रत रहे। जीवन के अंतिम 8-10 वर्षों में उन्होंने नेत्रहीन अवस्था में पांच पुस्तकें बोलकर लिखीं। ‘ग्लोकोमा' के कारण उनके दोनों नेत्रों की ज्योति जाती रही थी।
अनमोल विचार
1.अवसर तो सभी को जिन्दगी में मिलते हैं, किंतु उनका सही वक्त पर सही तरीके से इस्तेमाल कुछ ही कर पाते हैं।
2.इस संसार में प्यार करने लायक दो वस्तुएँ हैं-एक दुख और दूसरा श्रम। दुख के बिना हृदय निर्मल नहीं होता और श्रम के बिना मनुष्यत्व का विकास नहीं होता।
3. जब हम ऐसा सोचते हैं की अपने स्वार्थ की पूर्ती में कोई आंच न आने दी जाय और दूसरों से अनुचित लाभ उठा लें तो वैसी ही आकांक्षा दूसरे भी हम से क्यों न करेंगे.
4. जीवन में दो ही व्यक्ति असफल होते हैं- एक वे जो सोचते हैं पर करते नहीं, दूसरे जो करते हैं पर सोचते नहीं।
5.विचारों के अन्दर बहुत बड़ी शक्ति होती है । विचार आदमी को गिरा सकतें है और विचार ही आदमी को उठा सकतें है । आदमी कुछ नहीं हैं ।
6 .लक्ष्य के अनुरूप भाव उदय होता है तथा उसी स्तर का प्रभाव क्रिया में पैदा होता है।
7.लोभी मनुष्य की कामना कभी पूर्ण नहीं होती।
8.मानव के कार्य ही उसके विचारों की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या है।
9.अव्यवस्तिथ मस्तिष्क वाला कोई भी व्यक्ति संसार में सफल नहीं हो सकता।
10.जीवन में सफलता पाने के लिए आत्मा विश्वास उतना ही ज़रूरी है ,जितना जीने के लिए भोजन। कोई भी सफलता बिना आत्मा विश्वास के मिलना असंभव है।