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कप्तान राम सिंह ठाकुर (नेपाली: कप्तान राम सिंह ठकुरी 15 अगस्त 1914 – 15 अप्रैल 2002) भारत के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी तथा संगीतकार एवं गीतकार थे। वे मूलतः नेपाल के थे। उन्होने आजाद हिन्द फौज में सेवा करते हुए उन्होने 'कदम-कदम बढ़ाए जा', 'शुभ सुख चैन' सहित अनेकों राष्ट्रभक्ति के गीतों की रचना की।
बाद में उन्होने उत्तर प्रदेश सशस्त्र सेना (पीएसी) के लिए भी काम किया तथा 'कांस्तेबुलरी बैण्ड' की स्थापना की।
अखिल भारतीय इतिहास-संकलन योजना के संस्थापक-अध्यक्ष ठाकुर रामसिंह जी का जन्म 16 फ़रवरी 1915 को हिमाचल प्रदेश के ग्राम झण्डवी, तहसील भोन्राज, जिला हमीरपुर में हुआ था। आपके पिता का नाम श्री ठाकुर भागसिंह एवं माता का नाम श्रीमती निहातु देवी था। ठाकुर रामसिंह 5 भाई-बहन थे। आपकी प्राइमरी शिक्षा प्राइमरी पाठशाला में हुई। सन् 1935 में उन्होंने राजपूत हाईस्कूल, भोरवाहा से प्रथम श्रेणी में मैट्रिकुलेशन की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा सन् 1938 में डी॰ए॰वी॰ कालेज (होशियारपुर, पंजाब) से इंटरमीडिएट एवं 1940 में सनातन धर्म कालेज (लाहौर) से बी॰ए॰ की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1942 में उन्होने लाहौर विश्वविद्यालय के एफ॰सी॰ कालेज़ से स्नातकोत्तर (इतिहास) की परीक्षा उत्तीर्ण की।
राजनीतिविज्ञान एवं अंग्रेजी के इनके ज्ञान की प्रशंसा सभी प्राध्यापक करते थे। कालेज में हाकी-टीम के प्रमुख थे। एक आँख हाकी-स्टिक लगने से नष्ट हो गई थी।
पढ़ाई पूरी करने के बाद सन् 1942 में ठाकुर जी ने संघ के प्रचारक के रूप में स्वयं को देश-सेवा में समर्पित कर दिया। पठन-पाठन में अत्यधिक रुचि के कारण संघ-कार्यालय में उन्होंने एक पुस्तकालय की स्थापना की जिसमें उन्होंने 5 हज़ार पुस्तकों का संग्रह किया।
सन् 1948 में गाँधी-हत्या के बाद संघ पर प्रतिबन्ध के विरुद्ध उन्होंने योल कैम्प जेल में 42 दिन भूख-हड़ताल पर रहे 1,400 स्वयंसेवकों का नेतृत्व किया। भूख-हड़ताल के फलस्वरूप पंजाब के गोपीचन्द भार्गव शासन का पतन होकर भीमसेन सच्चर सरकार बनी। प्रतिबन्ध समाप्त होने के बाद पूरे देश में संघ का कार्य पुनः खड़ा होने लगा। श्री गोलवालकर जी ने ठाकुर रामसिंह जी को असम-क्षेत्र में संघ-कार्य खड़ा करने के लिए भेजा। सितम्बर, 1949 से अप्रैल, 1971 तक 22 वर्ष असम प्रान्त के प्रथम प्रांत-प्रचारक के रूप में कार्य करते हुए ठाकुरजी ने सम्पूर्ण असम-क्षेत्र को संगठन की दृष्टि से सुदृढ़ किया।
20 जून, 1946 को बाल्मीकि भवन में महात्मा गांधी के समक्ष “शुभ सुख चैन की बरखा बरसे” गीत गाकर उन्हें भी अपनी मुरीद बना लिया। 15 अगस्त, 1947 को राम सिंह के नेतृत्व में आई०एन०ए० के आर्केस्ट्रा ने लाल किले पर “शुभ-सुख चैन की बरखा बरसे” गीत की धुन बजाई। यह गीत रवीन्द्र नाथ टैगोर जी के “जन-गण-मन” का हिन्दी अनुवाद था और इसे कुछ संशोधनों के साथ नेताजी के खास सलाहकारों के साथ नेता जी ने ही लिखा था और इसकी धुन बनाई थी कै० राम सिंह ठाकुर ने। “कौमी तराना” नाम से यह गीत आजाद हिन्द फौज का राष्ट्रीय गीत बना, इस गीत की ही धुन को बाद में “जन-गण-मन” की धुन के रुप में प्रयोग किया गया। इस तरह से हमारे राष्ट्र गान की धुन राम सिंह जी द्वारा ही बनाई गई है।
अगस्त, 1948 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु के अनुरोध पर वह उत्तर प्रदेश पी०ए०सी० में सब इंस्पेक्टर के रुप में लखनऊ आये और पी०ए०सी० के बैण्ड मास्टर बन गये। 30 जून, 1974 को वे सेवानिवृत्त हो गये और उन्हें “आजीवन पी०ए०सी० के संगीतकार” का मानद पद दिया गया। 15 अप्रैल, 2002 को इस महान संगीतकार का देहावसान हो गया।
कै० राम सिंह जी को कई पुरस्कार मिले और अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वे लखनऊ की पी०ए०सी० कालोनी में रहते थे, वायरलेस चौराहे से सुबह शाम गुजरते वायलिन पर मार्मिक धुनें अक्सर सुनाई देती थी। उनके द्वारा कई पहाड़ी धुनें भी बनाई गईं, जैसे- “नैनीताला-नैनीताला…घुमी आयो रैला”। नेताजी द्वारा भेंट किया गया वायलिन उन्हें बहुत प्रिय था,
सिक्खों का संगठन
20 वर्ष की अवस्था में राम सिंह सिक्ख महाराजा रणजीत सिंह की सेना में शामिल हुए। सिक्खों के मूलाधार रणजीत सिंह की मृत्यु के उपरांत उनकी सेना और क्षेत्र बिखर गए। ब्रिटिश ताकत और सिक्खों की कमज़ोरी से चिंतित राम सिंह ने सिंक्खों में फिर से आत्म-सम्मान जगाने का निश्चय किया और उन्हें संगठित करने के लिए अनेक उपाय किए। उन्होंने नामधारियों में नए रिवाजों की शुरुआत की और उन्हें उन्मत मंत्रोच्चार के बाद चीख की ध्वनि उत्पन्न करने के कारण 'कूका'[2] कहा जाने लगा। उनका संप्रदाय, अन्य सिक्ख संप्रादायों के मुकाबले अधिक शुद्धतावादी और कट्टर था। नामधारी हाथों से बुने सफ़ेद रंग के वस्त्र पहनते थे। वे लोग एक बहुत ही ख़ास तरीके से पगड़ी बाँधते थे। वे अपने पास डंडा और ऊन की जप माला रखते थे। विशेष अभिवादनों व गुप्त संकेतों का इस्तेमाल वे किया करते थे। उनके गुरुद्धारे भी अत्यंत सादगीपूर्ण होते थे।
निधन
राम सिंह ने अपने शिष्यों, जिनमें से कई निर्धन थे, को यह बताकर कि वह ईश्वर के सबसे प्रिय हैं तथा अन्य मत म्लेच्छ हैं, उनमें आत्म-सम्मान का भाव पैदा किया। उनकी व्यक्तिगत सेना में संदेशवाहक तक अपने थे, ताकि ब्रिटिश डाक सेवा का बहिष्कार किया जा सके। देश की स्वाधीनता के लिए अपना योगदान देने वाले राम सिंह का 1885 ई. में बर्मा में निधन हुआ।