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प्रसिद्धराजा

परशुराम जीवनी - Biography of Parshuram in Hindi Jivani

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भगवान परशुराम Parshuram के पितामह महान ऋषि रिचिका थे जो एक प्रसिद्ध ऋषि भृगु के पुत्र थे | एक दिन ऋषि रिचिका अपने लिए वधु की खोंज में नगर से बाहर भ्रमण करने को निकले | उस समय दो वंश प्रमुख थे भरत-सूर्यवंश और चन्द्र वंश | चन्द्र वंश में गधी नामक एक राजा था जिसके सत्यवती नाम की पुत्री थी जिसका विवाह नही हुआ था | रुचिका ने उस नगर में प्रवेश किया और उसने राजकुमारी को दासियों के साथ बाहर जाते देखा | ऋषि उस राजकुमारी को देखकर मंत्रमुग्ध हो गये और अगले दिन राजा के दरबार में पहुच गये |


        ऋचिका ने दरबार में अपना परिचय दिया “महाराज , मेरा नाम ऋचिका है मै चावन्य का पुत्र हु ” | चावन्य उस दौर में सबसे शक्तिशाली ऋषि थे | राजा ने ऋषि का स्वागत किया और नगर में आने का उद्देश्य पूछा | ऋषि ने उत्तर दिया “कल मैंने आपकी पुत्री को देखा , वो बहुत सुंदर और गुणवान है , मै ऋषि हु और अपने तप से मै आपकी पुत्री को खुश रखूंगा , अगर आपको कोई आप्पति ना हो तो मै आपकी पुत्री से विवाह करना चाहता हु “|


राजा गधी ये सुनकर स्तब्ध रह गया क्योंकि उसने अपनी पुत्री के लिए ऐसे वर की कामना नही की थी | उसकी महलो में पली बढी पुत्री जंगलो में एक सन्यासी के साथ कैसे रह सकती है |


पौरोणिक परिचय


परशुरामजी का उल्लेख रामायण, महाभारत, भागवत पुराण और कल्कि पुराण इत्यादि अनेक ग्रन्थों में किया गया है। वे अहंकारी और धृष्ट हैहय वंशी क्षत्रियों का पृथ्वी से २१ बार संहार करने के लिए प्रसिद्ध हैं। वे धरती पर वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करना चाहते थे। कहा जाता है कि भारत के अधिकांश ग्राम उन्हीं के द्वारा बसाये गये। वे भार्गव गोत्र की सबसे आज्ञाकारी सन्तानों में से एक थे, जो सदैव अपने गुरुजनों और माता पिता की आज्ञा का पालन करते थे। वे सदा बड़ों का सम्मान करते थे और कभी भी उनकी अवहेलना नहीं करते थे। उनका भाव इस जीव सृष्टि को इसके प्राकृतिक सौंदर्य सहित जीवन्त बनाये रखना था। वे चाहते थे कि यह सारी सृष्टि पशु पक्षियों, वृक्षों, फल फूल औए समूची प्रकृति के लिए जीवन्त रहे। उनका कहना था कि राजा का धर्म वैदिक जीवन का प्रसार करना है नाकि अपनी प्रजा से आज्ञापालन करवाना। वे एक ब्राह्मण के रूप में जन्में अवश्य थे लेकिन कर्म से एक क्षत्रिय थे। उन्हें भार्गव के नाम से भी जाना जाता है।


यह भी ज्ञात है कि परशुराम ने अधिकांश विद्याएँ अपनी बाल्यावस्था में ही अपनी माता की शिक्षाओं से सीख ली थीँ (वह शिक्षा जो ८ वर्ष से कम आयु वाले बालको को दी जाती है)। वे पशु-पक्षियों तक की भाषा समझते थे और उनसे बात कर सकते थे। यहाँ तक कि कई खूँख्वार वनैले पशु भी उनके स्पर्श मात्र से ही उनके मित्र बन जाते थे।


उन्होंने सैन्यशिक्षा केवल ब्राह्मणों को ही दी। लेकिन इसके कुछ अपवाद भी हैं जैसे भीष्म और कर्ण।


कामधेनु के लिए संघर्ष


एक दिन सहस्त्रबाहु अर्जुन शिकार खेलने के लिये बड़े घोर जंगल में निकल गया था। दैववश वह जमदग्नि मुनि के आश्रम पर जा पहुँचा। परम तपस्वी जमदग्नि मुनि के आश्रम में कामधेनु रहती थी। उसके प्रताप से उन्होंने सेना, मन्त्री और वाहनों के साथ हैहयाधिपति का देखा कि जमदग्नि मुनि का ऐश्वर्य तो मुझसे भी बढ़ा-चढ़ा है। इसलिये उसने उनके स्वागत-सत्कार को कुछ भी आदर न देकर कामधेनु को ही ले लेना चाहा। उसने अभिमानवश जमदग्नि मुनि से माँगा भी नहीं, अपने सेवकों को आज्ञा दी कि कामधेनु को छीन ले चलो। उसकी आज्ञा से उसके सेवक बछड़े के साथ 'बाँ-बाँ' डकराती हुई कामधेनु को बलपूर्वक माहिष्मतीपुरी ले गये। जब वे सब चले गये, तब परशुरामजी आश्रम पर आये और उसकी दुष्टता का वृत्तान्त सुनकर चोट खाये हुए साँप की तरह क्रोध से तिलमिला उठे। वे अपना भयंकर फरसा, तरकस, ढाल एवं धनुष लेकर बड़े वेग से उसके पीछे दौड़े- जैसे कोई किसी से न दबने वाला सिंह हाथी पर टूट पड़े।


        सहस्त्रबाहु अर्जुन अभी अपने नगर में प्रवेश कर ही रहा था कि उसने देखा परशुरामजी महाराज बड़े वेग से उसी की ओर झपटे आ रहे हैं। उनकी बड़ी विलक्षण झाँकी थी। वे हाथ में धनुष-बाण और फरसा लिये हुए थे, शरीर पर काला मृगचर्म धारण किये हुए थे और उनकी जटाएँ सूर्य की किरणों के समान चमक रही थीं। उन्हें देखते ही उसने गदा, खड्ग बाण, ऋष्टि, शतघ्नी और शक्ति आदि आयुधों से सुसज्जित एवं हाथी, घोड़े, रथ तथा पदातियों से युक्त अत्यन्त भयंकर सत्रह अक्षौहिणी सेना भेजी। भगवान परशुराम ने बात-की-बात में अकेले ही उस सारी सेना को नष्ट कर दिया।