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राजा रवि वर्मा Raja Ravi Varma है जिसने अपनी कला की बदौलत काफी नाम कमाया जिससे ना केवल राज दरबार बल्कि सामान्य जन में भी उनका काफी नाम हुआ था | 20वी सदी में केवल राजा रवि वर्मा ही एकमात्र ऐसे भारतीय चित्रकार थे जिनको आयल पेंटिंग आती थी | उन आयल पेंटिंग से उन्होंने भारतीय देवी देवताओ को उभारा जो एकदम सजीव लगे जिसे भारतीय हिन्दू अपने घरो में देवताओ की तरह पूजने लगे | इससे पहले केवल मूर्तियों का प्रचलन था और मन्दिर जाना पड़ता था लेकिन Raja Ravi Varma राजा रवि वर्मा की चित्रों की बदौलत ईश्वर घर घर पहुचे थे | आइये आपको उस महान कलाकार के जीवन के सफर से रूबरू करवाते है
Raja Ravi Varma रवि वर्मा का जन्म 29 अप्रैल 1848 में केरल के किल्लीमनुर गाँव में हुआ था | उनका परिवार त्रावणकोर के शाही परिवार से संबध रखता था | बचपन से ही रवि वर्मा को चित्र बनाने का बहुत शौक था और वो अपने घरो की दीवारों पर कोयले से चित्र बनाया करते थे | भाग्यवश कोयले से दीवार पर चित्र बनाने के कारण उनके चाचा ने रवि वर्मा को मारन की बाजी उनकी कला को पहचाना और उसे अपने साथ तिरुवनंतपुरम के शाही दरबार में लेकर आ गये , जहा उनको कला की प्रारम्भिक शिक्षा दी गयी | राजा अयिल्यम थिरूनल के महल में Raja Ravi Varma रवि वर्मा ने अनेक प्रकार की भारतीय और पाश्चात्य सभ्यता के चित्र देखे | इन चित्रों को देखकर उन्हें यूरोपीय चित्रों में एक गहराई दिखी जिसे वो भी अपनी चित्रकला में समाहित करना चाहते थे
वस्तुत: राजा रवि वर्मा (Raja Ravi Varma) ने भारतीय धर्म के सभी प्रमुख देवी देवताओं के चित्र अत्यंत कलात्मकता ,सुन्दरता ,मधुरता एवं सौष्ठव के साथ बनाये है | उनके अद्वितीय चित्रकला कौशल के अनुपम उदाहरण विश्वामित्र , मेनका के चित्र , हरीशचंद्र , श्रीकृष्ण ,बलराम ,मोहिनी ,रुकमागंधा तथा दुष्यंत-शकुंतला आदि है | जब 1893 में उनके चित्रों की प्रदर्शनी लगायी गयी थी तब उस चित्र प्रदर्शनी को देखने का का अधिकार केवल धनी मानी लोगो को ही था | बाद में चित्रकला जब जनसामान्य तक पहुची ,तब लोगो को उनकी अद्भुद चित्रकला से परिचित होने का अवसर मिला |
राजा रवि वर्मा (Raja Ravi Varma) भारत के चित्रकारों में अपना अद्वितीय स्थान इसलिए रखते है क्योंकि उनकी कला की तकनीकी प्राचीन और यूरोपीय कला शैली के बेजोड़ समन्वय की विशिष्टता लिए हुए है | भारतीय सामान्य जनमानस में वे इसलिए लोकप्रिय हुए क्योंकि उन्होंने हिन्दू देवी देवताओं के अत्यंत सुंदर एवं स्वाभाविक मुद्रा में ऐसे चित्र बनाए ,जो अत्यंत सजीव तथा श्रुधा से युक्त जान पड़ते है | उनकी चित्रकला में तेल चित्रों का सुंदर रूप मिलता है |
करियर
ट्रावन्कोर के तत्कालीन महाराजा अयिल्यम थिरूनल ने राजा रवि वर्मा को संरक्षण प्रदान किया जिसके बाद उनका विधिवत प्रशिक्षण प्रारंभ हुआ। मदुरै में उन्होंने चित्रकारी के मूल तत्व सीखे। बाद में रामा स्वामी नायडू ने उन्हें वाटर पेटिंग में और डच चित्रकार थिओडोर जेंसन ने आयल पेंटिंग में प्रशिक्षण दिया।
ब्रिटिश प्रशासक एडगर थर्स्तन ने राजा रवि वर्मा और उनके भाई के करियर को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन 1878 में विएना के एक प्रदर्शनी में उनके चित्रों का प्रदर्शन किया गया जहाँ उन्हें एक पुरस्कार भी मिला जिसके बाद उनका नाम और चर्चित हो गया। वर्मा के चित्रों को सन 1893 में शिकागो में संपन्न ‘वर्ल्डस कोलंबियन एक्स्पोजिसन’ में भी भेजा गया जहाँ उन्हें तीन स्वर्ण पदक प्राप्त हुए।
उन्होंने चित्रकारी के लिए विषयों की तलाश में समूचे देश का भ्रमण किया। वे हिन्दू देवियों के चित्रों को अक्सर सुन्दर दक्षिण भारतीय महिलाओं के ऊपर दर्शाते थे। राजा रवि वर्मा ने महाभारत के महत्वपूर्ण कहानियों जैसे ‘दुष्यंत और शकुंतला’ और ‘नल और दमयंती’ के ऊपर भी चित्रकारी की। उन्होंने हिन्दू पौराणिक किरदारों को अपनी चित्रकारी में महत्वपूर्ण स्थान दिया। राजा रवि वर्मा के आलोचक उनकी शैली को बहुत ज्यादा दिखावटी और भावनात्मक मानते हैं पर उनकी कृतियां भारत में बहुत लोकप्रिय हैं। उनके कई चित्र बड़ोदा के लक्ष्मी विलास पैलेस में सुरक्षित हैं।
उनकी सुव्यवस्थित कला शिक्षा ने राजा रवि वर्मा की सफलता में महत्वपूर्ण योगदान दिया। सबसे पहले उन्होंने पारंपरिक तंजावुर कला शैली प्रशिक्षण प्राप्त की जिसके बाद यूरोपीय कला और तकनीक का अध्ययन किया। राजा रवि वर्मा की कला कृतियों को तीन प्रमुख श्रेणियों में बाँटा जा सकता है:
आधुनिक भारतीय चित्रकला के जन्मदाता
आधुनिक भारतीय चित्रकला को जन्म देने का श्रेय राजा रवि वर्मा को जाता है। उनकी कलाओं में पश्चिमी रंग का प्रभाव साफ नजर आता है। उन्होंने पारंपरिक तंजावुर कला और यूरोपीय कला का संपूर्ण अध्ययन कर उसमें महारत हासिल की थी। उन्होंने भारतीय परंपराओं की सीमाओं से बाहर निकलते हुए चित्रकारी को एक नया आयाम दिया। बेशक उनके चित्रों का आधार भारतीय पौराणिक कथाओं से लिए गए पात्र थे, लेकिन रंगों और आकारों के जरिए उनकी अभिव्यक्ति आज भी प्रासंगिक लगती है। उन्होंने उस समय में खुलेपन को स्वीकार किया, जब इस बारे में सोचना भी मुश्किल था। राजा रवि वर्मा ने इस विचारधारा को न सिर्फ आत्मसात किया, बल्कि अपने कैनवस पर रंगों के माध्यम से उकेरा भी। यही कारण रहा कि उनकी कलाकृतियों को उस समय के प्रतिष्ठित चित्रकारों ने स्वीकार करने से इनकार कर दिया था। फिर भी उन्होंने प्रयास नहीं छोड़ा और बाद में उन्हीं चित्रकारों को उनकी प्रतिभा का लोहा मानना पड़ा। उन्होंने अपनी चित्रकारी में प्रयोग करना नहीं छोड़ा और हमेशा कुछ अनोखा और नया करने का प्रयास करते रहे।
रोचक तथ्य
अक्टूबर 2007 में उनके द्वारा बनाई गई एक ऐतिहासिक कलाकृति, जो भारत में ब्रिटिश राज के दौरान ब्रितानी राज के एक उच्च अधिकारी और महाराजा की मुलाक़ात को चित्रित करती है, 1.24 मिलियन डॉलर (लगभग 6 करोड़) में बिकी है। इस पेंटिंग में त्रावणकोर के महाराज और उनके भाई को मद्रास के गवर्नर जनरल रिचर्ड टेंपल ग्रेनविले को स्वागत करते हुए दिखाया गया है। ग्रेनविले 1880 में आधिकारिक यात्रा पर त्रावणकोर गए थे जो अब केरल राज्य में है। विश्व की सबसे महंगी साड़ी राजा रवि वर्मा के चित्रों की नक़ल से सुसज्जित है।
प्रतिकृति या पोर्ट्रेट
मानवीय आकृतियों वाले चित्र तथा, इतिहास व पौराणिक घटनाओं से संबंधित चित्र
कलाकृतियाँ
चित्रकला की शिक्षा उन्होंने मदुरै के चित्रकार अलाग्री नायडू तथा विदेशी चित्रकार श्री थियोडोर जेंसन से, जो भ्रमणार्थ भारत आये थे, पायी थी। दोनों यूरोपीय शैली के कलाकार थे। श्री वर्मा की चित्रकला में दोनों शैलियों का सम्मिश्रण दृष्टिगोचर होता है। उन्होंने लगभग ३० वर्ष भारतीय चित्रकला की साधना में लगाए। मुंबई में लीथोग्राफ प्रेस खोलकर उन्होंने अपने चित्रों का प्रकाशन किया था। उनके चित्र विविध विषय के हैं किन्तु उनमें पौराणिक विषयों के और राजाओं के व्यक्ति चित्रों का आधिक्य है। विदेशों में उनकी कृतियों का स्वागत हुआ, उनका सम्मान बढ़ा और पदक पुरस्कार मिले। पौराणिक वेशभूषा के सच्चे स्वरूप के अध्ययन के लिए उन्होंने देशाटन किया था।
उनकी कलाकृतियों को तीन प्रमुख श्रेणियों में बाँटा गया है।
१- प्रतिकृति या पोर्ट्रेट,
२- मानवीय आकृतियों वाले चित्र तथा
३- इतिहास व पुराण की घटनाओं से सम्बन्धित चित्र।
यद्यपि जनसाधारण में राजा रवि वर्मा की लोकप्रियता इतिहास पुराण व देवी देवताओं के चित्रों के कारण हुई लेकिन तैल माध्यम में बनी अपनी प्रतिकृतियों के कारण वे विश्व में सर्वोत्कृष्ट चित्रकार के रूप में जाने गये। आज तक तैलरंगों में उनकी जैसी सजीव प्रतिकृतियाँ बनाने वाला कलाकार दूसरा नहीं हुआ। उनका देहान्त २ अक्टूबर १९०६ को हुआ।
मुख्य कृतियाँ
खेड्यातिल कुमारी ,विचारमग्न युवती, दमयंती-हंसा संभाषण,संगीत सभा, अर्जुन व सुभद्रा, फल लेने जा रही स्त्री, विरहव्याकुल युवती, तंतुवाद्यवादक स्त्री, शकुन्तला, कृष्णशिष्टाई, रावण द्वारा रामभक्त जटायु का वध, इंद्रजित-विजय, भिखारी कुटुंब, स्त्री तंतुवाद्य वाजवताना, स्त्री देवळात दान देतांना, राम की वरुण-विजय,नायर जाति की स्त्री,प्रणयरत जोडे,द्रौपदी किचक-भेटीस घाबरत असताना,शंतनु व मत्स्यगंधा,शकुंतला राजा दुष्यंतास प्रेम-पत्र लिहीताना, शकुंतला राजा दुष्यंतास प्रेम-पत्र लिहीताना, कण्व ऋषि के आश्रम की ऋषिकन्या