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ओंकारनाथ ठाकुर (1897–1967) भारत के शिक्षाशास्त्री, संगीतज्ञ एवं हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीतकार थे। उनका सम्बन्ध ग्वालियर घराने से था।
उन्होने वाराणसी में महामना पं॰ मदनमोहन मालवीय के आग्रह पर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में संगीत के आचार्य पद की गरिमा में वृद्धि की। वे तत्कालीन संगीत परिदृष्य के सबसे आकर्षक व्यक्तित्व थे। पचास और साठ के दशक में पण्डितजी की महफ़िलों का जलवा पूरे देश के मंचों पर छाया रहा। पं॰ ओंकारनाथ ठाकुर की गायकी में रंजकता का समावेश तो था ही, वे शास्त्र के अलावा भी अपनी गायकी में ऐसे रंग उड़ेलते थे कि एक सामान्य श्रोता भी उनकी कलाकारी का मुरीद हो जाता। उनका गाया वंदेमातरम या 'मैया मोरी मैं नहीं माखन खायो' सुनने पर एक रूहानी अनुभूति होती है।
श्री ओंकारनाथ ठाकुर का जन्म गुजरात के बड़ोदा राज्य में एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके दादा महाशंकर जी और पिता गौरीशंकर जी नाना साहब पेशवा की सेना के वीर योद्धा थे। एक बार उनके पिता का सम्पर्क अलोनीबाबा के नाम से विख्यात एक योगी से हुआ। इन महात्मा से दीक्षा लेने के बाद से गौरीशंकर के परिवार की दिशा ही बदल गई। वे प्रणव-साधना अर्थात ओंकार के ध्यान में रहने लगे। तभी २४ जून १८९७ को उनकी चौथी सन्तान ने जन्म लिया। ओंकार-भक्त पिता ने पुत्र का नाम ओंकारनाथ रखा। जन्म के कुछ ही समय बाद यह परिवार बड़ौदा राज्य के जहाज ग्राम से नर्मदा तट पर भड़ौच नामक स्थान पर आकर बस गया।
ओंकारनाथ जी का लालन-पालन और प्राथमिक शिक्षा यहीं सम्पन्न हुई। इनका बचपन अभावों में बीता। यहाँ तक कि किशोरावस्था में ओंकारनाथ जी को अपने पिता और परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण के लिए एक मिल में नौकरी करनी पड़ी। ओंकारनाथ की आयु जब १४ वर्ष थी, तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। उनके जीवन में एक निर्णायक मोड़ तब आया, जब भड़ौच के एक संगीत-प्रेमी सेठ ने किशोर ओंकार की प्रतिभा को पहचाना और उनके बड़े भाई को बुला कर संगीत-शिक्षा के लिए बम्बई के विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय भेजने को कहा। पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के मार्गदर्शन में उनकी संगीत-शिक्षा आरम्भ हुई।
विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय, मुम्बई में प्रवेश लेने के बाद ओंकारनाथ जी ने वहाँ के पाँच वर्ष के पाठ्यक्रम को तीन वर्ष में ही पूरा कर लिया और इसके बाद गुरु जी के चरणों में बैठ कर गुरु-शिष्य परम्परा के अन्तर्गत संगीत की गहन शिक्षा अर्जित की।
एक बार पंडित ओमकारनाथ ठाकुर के संगीत को सुनने के बाद, महात्मा गांधी ने टिप्पणी की थी: "पंडित ओमकारनाथजी अपने एक गीत के माध्यम से प्राप्त कर सकते हैं, जो मैं कई भाषणों के माध्यम से प्राप्त नहीं कर सकता।
श्रोताओं पर ओमकारनाथ ठाकुर के व्यक्तित्व और उनके संगीत का प्रभाव इस तरह का था। एक सफल संगीतकार होने के अलावा, उन्हें एक प्रभावशाली व्यक्तित्व भी मिला जिसने खुद को सिर और हृदय के कई अद्भुत गुणों को मिला। अपने शुरुआती बचपन के वर्षों की कहानी वास्तव में चलती है, जो कि संघर्ष, निजीकरण और गरीबी के साथ थी। लेकिन इस सब दुख के तहत कुचल होने के बजाय, लड़का का मजबूत चरित्र, उसकी जन्मजात प्रतिभा, और उसके अच्छे गुणों को दुख की शुद्धता के आग से एक दुर्लभ प्रतिभा के साथ उभरा। ओंकारनाथजी की जीवन कथा साबित करती है कि जीवन में महानता प्राप्त करने के लिए किसने भाग लिया है, वह विजयी हो जाएगा, हालाँकि इसके विपरीत परिस्थितियों में हो सकता है इस तरह की वास्तविक जीवन कथाएँ संस्कार के हिंदू सिद्धांत, संचित ज्ञान, अच्छाई, संस्कृति आदि में एक के विश्वास को मजबूत करती हैं, जो कि पिछले जन्मों के माध्यम से अर्जित हुई हैं।
विवाह
1922 में सूरत की इंदिरा देवी से उनका विवाह हुआ। उसके बाद वे नेपाल गये, जहाँ महाराज चंद्रशमशेर जंगबहादुर के समक्ष उनको गायन प्रस्तुत करने का अवसर मिला। महाराज ने उन्हें भरपूर सम्मान, भेंट वस्तुएं तथा धन तो दिया ही, साथ ही दरबार में गायक के रूप में नियुक्ति देने का भी प्रस्ताव रखा, परंतु ओंकारनाथजी ने दरबारी गायक बनना स्वीकार नहीं किया। वे उस समय इटली, जर्मनी, हॉलैंड, बेल्जियम, फ्रांस, इंग्लैंड, स्विट्जरलैंड और अफ़गानिस्तान भी गये। रूस जाते समय उन्हें अपनी पत्नी के अचानक निधन का समाचार मिला, तो वे वापस लौट आये। बहुत लोगों के कहने के बावजूद ओंकारनाथ ठाकुर ने पत्नी के निधन के बाद पुनर्विवाह नहीं किया और एकाकी जीवन बिताने लगे। उनके शिष्य ही उनके लिए पुत्र-पुत्री समान हो गये थे। फिर उन्होंने मुंबई में संगीत निकेतन की स्थापना की।
संगीत शिक्षा
जन्म के कुछ ही समय बाद यह परिवार बड़ौदा राज्य के जहाज ग्राम से नर्मदा तट पर भड़ौच नामक स्थान पर आकर बस गया। ओंकारनाथ जी का लालन-पालन और प्राथमिक शिक्षा यहीं सम्पन्न हुई। इनका बचपन अभावों में बीता। यहाँ तक कि किशोरावस्था में ओंकारनाथ जी को अपने पिता और परिवार के सदस्यों के भरण-पोषण के लिए एक मिल में नौकरी करनी पड़ी। ओंकारनाथ की आयु जब 14 वर्ष थी, तभी उनके पिता का देहान्त हो गया। उनके जीवन में एक निर्णायक मोड़ तब आया, जब भड़ौच के एक संगीत-प्रेमी सेठ ने किशोर ओंकार की प्रतिभा को पहचाना और उनके बड़े भाई को बुला कर संगीत-शिक्षा के लिए बम्बई के विष्णु दिगम्बर संगीत महाविद्यालय भेजने को कहा। पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के मार्गदर्शन में उनकी संगीत-शिक्षा आरम्भ हुई