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जयशंकर प्रसाद हिन्दी कवि, नाटकार, कथाकार, उपन्यासकार तथा निबन्धकार थे। वे हिन्दी के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। उन्होंने हिंदी काव्य में छायावाद की स्थापना की जिसके द्वारा खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित हुई और वह काव्य की सिद्ध भाषा बन गई। आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में इनके कृतित्व का गौरव अक्षुण्ण है।
वे एक युगप्रवर्तक लेखक थे जिन्होंने एक ही साथ कविता, नाटक, कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में हिंदी को गौरव करने लायक कृतियाँ दीं। कवि के रूप में वे निराला, पन्त, महादेवी के साथ छायावाद के चौथे स्तंभ के रूप में प्रतिष्ठित हुए है; नाटक लेखन में भारतेंदु के बाद वे एक अलग धारा बहाने वाले युगप्रवर्तक नाटककार रहे जिनके नाटक आज भी पाठक चाव से पढते हैं।
इसके अलावा कहानी और उपन्यास के क्षेत्र में भी उन्होंने कई यादगार कृतियाँ दीं। विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करूणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन। ४८ वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं की।
प्रारंभिक जीवन :
जिस समय खड़ी बोली और आधुनिक हिन्दी साहित्य किशोरावस्था में पदार्पण कर रहे थे उस समय जयशंकर प्रसाद का जन्म सन् 1889 ई. (माघ शुक्ल दशमी, संवत् 1946 वि.) वाराणसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। कवि के पितामह शिव रत्न साहु वाराणसी के अत्यन्त प्रतिष्ठित नागरिक थे और एक विशेष प्रकार की सुरती (तम्बाकू) बनाने के कारण 'सुँघनी साहु' के नाम से विख्यात थे। उनकी दानशीलता सर्वविदित थी और उनके यहाँ विद्वानों कलाकारों का समादर होता था।
जयशंकर प्रसाद के पिता देवीप्रसाद साहु ने भी अपने पूर्वजों की परम्परा का पालन किया। इस परिवार की गणना वाराणसी के अतिशय समृद्ध घरानों में थी और धन-वैभव का कोई अभाव न था। प्रसाद का कुटुम्ब शिव का उपासक था। माता-पिता ने उनके जन्म के लिए अपने इष्टदेव से बड़ी प्रार्थना की थी। वैद्यनाथ धाम के झारखण्ड से लेकर उज्जयिनी के महाकाल की आराधना के फलस्वरूप पुत्र जन्म स्वीकार कर लेने के कारण शैशव में जयशंकर प्रसाद को 'झारखण्डी' कहकर पुकारा जाता था।
वैद्यनाथधाम में ही जयशंकर प्रसाद का नामकरण संस्कार हुआ। जयशंकर प्रसाद की शिक्षा घर पर ही आरम्भ हुई। संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी, उर्दू के लिए शिक्षक नियुक्त थे। इनमें रसमय सिद्ध प्रमुख थे। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थों के लिए दीनबन्धु ब्रह्मचारी शिक्षक थे। कुछ समय के बाद स्थानीय क्वीन्स कॉलेज में प्रसाद का नाम लिख दिया गया, पर यहाँ पर वे आठवीं कक्षा तक ही पढ़ सके। प्रसाद एक अध्यवसायी व्यक्ति थे और नियमित रूप से अध्ययन करते थे।
इनके बाल्यकाल में ही इनके पिता जी का देहांत हो गया | किशोरावस्था से पूर्व इनकी माता और बड़े भाई का देहांत हो गया | जिसके कारण 17 वर्ष की उम्र में ही जयशंकर प्रसाद पर अनेक जिम्मेदारियां आ गयी | घर में सहारे के रूप में केवल विधवा भाभी और परिवार से सम्बद्ध अन्य लोगों ने इनकी सम्पत्ति हड़पने का षड्यंत्र रचा, परिणाम स्वरुप इन्होंने विद्यालय की शिक्षा छोड़ दी और घर में ही अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला, उर्दू, फारसी, संस्कृत आदि भाषाओं का गहन अध्यन किया | ये साहित्यिक प्रवृति के व्यक्ति थे, शिव के उपासक थे और मांस मदिरा से दूर रहते थे | इन्होंने अपने साहित्य साधना से हिन्दी को अनेक उच्चकोटि के ग्रन्थ-रत्न प्रदान किए | इनके गुरुओं में रसमय सिद्ध की भी चर्चा की जाती है | इन्होंने वेद, इतिहास, पुराण व साहित्य का गहन अध्ययन किया था |
सत्रह वर्ष की अवस्था तक इनके माता-पिता एवं ज्येष्ठ भ्राता के देहावसान के कारण गृहस्थी का बोझ आन पड़ा। गृह कलह में साडी समृद्धि जाती रही। इन्ही परिस्थितियों ने प्रसाद के कवि व्यक्तित्व को उभारा। १५ नवम्बर १९३७ को इस महान रचनाकार की लेखनी ने जीवन के साथ विराम ले लिया। ‘कामायनी’ जैसे महाकाव्य के रचयिता जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में अंतर्द्वद्व का जो रूप दिखाई पड़ता है वह इनकी लेखनी का मौलिक गुण है।
इनके नाटकों तथा कहानियो में भी यह अंतर्द्वंद्व गहन संवेदना के स्तर पर उपस्थित है। इनकी अधिकांश रचनाएँ इतिहास तथा कल्पना के समन्वय पर आधारित हैं तथा प्रत्येक काल के यथार्थ को गहरे स्तर पर संवेदना की भावभूमि पर प्रस्तुत करती हैं। जयशंकर प्रसाद की रचनाओं में शिल्प के स्तर पर भी मौलिकता के दर्शन होते हैं। उनकी रचनाओं में भाषा की संस्कृतनिष्ठता तथा प्रांजलता विशिष्ट गुण हैं। चित्रात्मक वस्तु-विवरण से संपृक्त उनकी रचनाएँ प्रसाद की अनुभूति और चिंतन के दर्शन कराती हैं।
छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक। एक महान लेखक के रूप में प्रख्यात। विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करूणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन। ४८ वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं। काव्य साहित्य में कामायनी बेजोड कृति है । विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करूणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन करने वाले इस महामानव ने ४८ वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं लिख कर हिंदी साहित्य जगत को सवांर सजाया ।
१४ जनवरी १९३७ को वाराणसी में निधन, हिंदी साहित्याकास में एक अपूर्णीय क्षति। हिन्दी साहित्य के इतिहास में कहानी को आधुनिक जगत की विधा बनाने में प्रसाद का योगदान अन्यतम है। वाह्य घटना को आन्तरिक हलचल के प्रतिफल के रूप में देखने की उनकी दृष्टि, जो उनके निबंधों में शैवाद्वैत के सैद्धांतिक आधार के रूप में है, ने कहानी में आन्तरिकता का आयाम प्रदान किया है। जैनेन्द्र ओर अज्ञेय की कहानियों के मूल में प्रसाद के इस आयाम को देखा जा सकता है।
एक महान लेखक के रूप में प्रख्यात जयशंकर प्रसाद के तितली, कंकाल और इरावती जैसे उपन्यास और आकाशदीप, मधुआ और पुरस्कार जैसी कहानियाँ उनके गद्य लेखन की अपूर्व ऊँचाइयाँ हैं। उनकी कहानियां कविता समान रहती है। काव्य साहित्य में कामायनी बेजोड कृति है । विविध रचनाओं के माध्यम से मानवीय करूणा और भारतीय मनीषा के अनेकानेक गौरवपूर्ण पक्षों का उद्घाटन करने वाले इस महामानव ने ४८ वर्षो के छोटे से जीवन में कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास और आलोचनात्मक निबंध आदि विभिन्न विधाओं में रचनाएं लिख कर हिंदी साहित्य जगत को सवांर सजाया ।
१४ जनवरी १९३७ को वाराणसी में निधन, हिंदी साहित्याकास में एक अपूर्णीय क्षति । प्रसाद जी ने अपने नाटकों के माध्यम से भारतीय इतिहास के गौरवपूर्ण चरित्रों को सामने लाते रहे। ’चन्द्रगुप्त’ इनका ऐसा ही एक नाटक है। इस नाटक में भी इन्होंने अपने स्वाभावानुसार सुंदर गीतों का समावेश किया है। इन्हीं में से एक गीत ’हिमाद्रि तुंग शृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती’ में वे बड़े सुंदर और ओजस्वी ढंग से भारत के वीरों का आह्वान करते हैं।
शैली प्रसाद ने निबंध लेखन में निम्नलिखित शैलियों का प्रयोग किया है -
1. भावात्मक शैली – प्रसाद जी की रचना प्रक्रिया नाटक से काव्य लेखन की ओर उन्मुख हुई है। इसलिए नाटक संयोजन पात्र योजना, भावात्मक, मनोभावों की अभिव्यक्ति भावात्मक शैली में हुई है।
2. चित्रात्मक शैली – प्रसाद जी ने जहां वस्तुओं, स्थानों और व्यक्तियों के शब्द चित्र में उपस्थित किए हैं वहां उनकी शैली चित्रात्मक हो गई है ।
3. अलंकारिक शैली- हृदय की प्रधानता के कारण प्रसाद के गद्य में भी अलंकारों का सही प्रयोग मिलता है जिसमें अलंकारिक रूप मिलते हैं ।
4. संवाद शैली – प्रसाद के उपन्यास कहानी और नाटकों में संवाद शैली का प्रयोग पात्र अनुकूल किया है ।
5. वर्णनात्मक शैली – विषय वस्तु का प्रतिपादन घटनाओं और वस्तुओं के चित्र में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग मिलता है।
काव्य संग्रह :
• कामायनी / जयशंकर प्रसाद (महाकाव्य)
• आँसू / जयशंकर प्रसाद
• झरना / जयशंकर प्रसाद
• कानन-कुसुम / जयशंकर प्रसाद
• लहर / जयशंकर प्रसाद
रचनाएँ :
• चित्राधार / जयशंकर प्रसाद
• आह ! वेदना मिली विदाई / जयशंकर प्रसाद
• बीती विभावरी जाग री / जयशंकर प्रसाद
• दो बूँदें / जयशंकर प्रसाद
• प्रयाणगीत / जयशंकर प्रसाद
• तुम कनक किरन / जयशंकर प्रसाद
• भारत महिमा / जयशंकर प्रसाद
• अरुण यह मधुमय देश हमारा / जयशंकर प्रसाद
• आत्मकथ्य / जयशंकर प्रसाद
• सब जीवन बीता जाता है / जयशंकर प्रसाद
• हिमाद्रि तुंग शृंग से / जयशंकर प्रसाद
काव्य-संग्रह :
• 'प्रेम पथिक' का ब्रजभाषा स्वरूप सबसे पहले 'इन्दू' (1909 ई.) में प्रकाशित हुआ था
• 'चित्राधार' (1918, अयोध्या का उद्धार, वनमिलन और प्रेमराज्य तीन कथाकाव्य इसमें संगृहीत हैं।)
• झरना (1918, छायावादी शैली में रचित कविताएँ इसमें संगृहीत)
• 'कानन कुसुम' है (1918, खड़ीबोली की कविताओं का प्रथम संग्रह है)
• 'आँसू' (1925 ई.) 'आँसू' एक श्रेष्ठ गीतिकाव्य है।
•' महाराणा का महत्त्व' (1928) 1914 ई. में 'इन्दु' में प्रकाशित हुआ था। यह भी 'चित्राधार' में संकलित था, पर 1928 ई. में इसका स्वतन्त्र प्रकाशन हुआ। इसमें महाराणा प्रताप की कथा है।
• लहर (1933, मुक्तक रचनाओं का संग्रह)
• कामायनी (1936, महाकाव्य)
नाटक :
• सज्जन (1910 ई., महाभारत से)
• कल्याणी-परिणय (1912 ई., चन्द्रगुप्त मौर्य, सिल्यूकस, कार्नेलिया, कल्याणी)
• 'करुणालय' (1913, 1928 स्वतंत्र प्रकाशन, गीतिनाट्य, राजा हरिश्चन्द्र की कथा) इसका प्रथम प्रकाशन 'इन्दु' (1913 ई.) में हुआ।
• प्रायश्चित् (1013, जयचन्द, पृथ्वीराज, संयोगिता)
• राज्यश्री (1914)
• विशाख (1921)
• अजातशत्रु (1922)
• जनमेजय का नागयज्ञ (1926)
• कामना (1927)
• स्कन्दगुप्त (1928, विक्रमादित्य, पर्णदत्त, बन्धवर्मा, भीमवर्मा, मातृगुप्त, प्रपंचबुद्धि, शर्वनाग, धातुसेन (कुमारदास), भटार्क, पृथ्वीसेन, खिंगिल, मुद्गल,कुमारगुप्त, अननतदेवी, देवकी, जयमाला, देवसेना, विजया, तमला,रामा,मालिनी, स्कन्दगुप्त)
• एक घूँट (1929, बनलता, रसाल, आनन्द, प्रेमलता)
• चन्द्रगुप्त (1931, चाणक्य, चन्द्रगुप्त, सिकन्दर, पर्वतेश्वर, सिंहरण, आम्भीक, अलका, कल्याणी, कार्नेलिया, मालविका, शकटार)
• ध्रुवस्वामिनी (1933, चन्द्रगुप्त, रामगुप्त, शिखरस्वामी, पुरोहित, शकराज, खिंगिल, मिहिरदेव, ध्रुवस्वामिनी, मंदाकिनी, कोमा)