Deoxa Indonesian Channels

lisensi

Advertisement

" />
, 03:14 WIB
कवि

छीतस्वामी जीवनी - Biography of Chhatesawami in Hindi Jivani

Advertisement


छीतस्वामी आठ कवियों (अष्टछाप कवि) में एक। जिन्होने भगवान श्री कृष्ण की विभिन्न लीलाओं का अपने पदों में वर्णन किया। इनका जन्म १५१५ ई० में हुआ था। मथुरा के चतुर्वेदी ब्राह्मण थे। घर में जजमानी और पंडागिरी होती थी। प्रसिद्ध है कि ये बीरबल के पुरोहित थे। पंडा होने के कारण पहले ये बड़े अक्खड़ और उद्दण्ड थे।


छीतस्वामी श्री गोकुलनाथ जी (प्रसिद्ध पुष्टिमार्ग के आचार्य ज. सं. 1608 वि.) कथित दो सौ बावन वैष्णवों की वार्ता के अनुसार अष्टछाप के भक्त कवियों में सुगायक एवं गुरु गोविंद में तनिक भी अंतर न माननेवाले "श्रीमद्वल्लभाचार्य" (सं. 1535 वि.) के द्वितीय पुत्र गो. श्री विट्ठलनाथ जी (ज.सं.- 1535 वि.) के शिष्य थे। जन्म अनुमानत: सं.- 1572 वि. के आसपास "मथुरा" यत्र सन्निहिओ हरि: (श्रीमद्भागवत : 10.1.28) में माथुर चतुर्वेदी ब्राह्मण के एक संपन्न परिवार में हुआ था। अष्टछाप के कवियों में छीतस्वामी एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने जीवनपर्यन्त गृहस्थ-जीवन बिताते हुए तथा अपने ही घर रहते हुए श्रीनाथजी की कीर्तन-सेवा की।


अष्टछाप के कवियों में छीतस्वामी एक ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने जीवनपर्यन्त गृहस्थ-जीवन बिताते हुए तथा अपने ही घर रहते हुए श्रीनाथजी की कीर्तन-सेवा की। ये मथुरा के रहने वाले चौबे थे। इनका जन्म अनुमानत: सन् 1510 ई. के आसपास, सम्प्रदाय प्रवेश सन् 1535 ई. तथा गोलोकवास सन् 1585 ई. में हुआ था। वार्ता में लिखा है कि ये बड़े मसखरे, लम्पट और गुण्डे थे। एक बार गोसाई विट्ठलनाथ की परीक्षा लेने के लिए वे अपने चार चौबे मित्रों के साथ उन्हें एक खोटा रुपया और एक थोथा नारियल भेंट करने गये, किन्तु विट्ठलनाथ को देखते ही इन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्होंने हाथ जोड़कर गोसाईं जी से क्षमा याचना की और उनसे शरण में लेने की प्रार्थना की। शरण में लेने के बाद गोसाईं जी ने श्रीनाथ जी की सेवा-प्रणाली के निर्माण में छीतस्वामी से बहुत सहायता ली। महाराज बीरबल के वे पुरोहित थे और उनसे वार्षिक वृत्ति पाते थे। एक बार बीरबल को उन्होंने एक पद सुनाया, जिसमें गोस्वामी जी की साक्षात कृष्ण के रूप में प्रशंसा वर्णित थी। बीरबल ने उस पद की सराहना नहीं की। इस पर छीतस्वामी अप्रसन्न हो गये और उन्होंने बीरबल से वार्षिक वृत्ति लेना बन्द कर दिया। गोसाईं जी ने लाहौर के वैष्णवों से उनके लिए वार्षिक वृत्ति का प्रबन्ध कर दिया। कविता और संगीत दोनों में छीतस्वामी बड़े निपुण थे। प्रसिद्ध है कि अकबर भी उनके पद सुनने के लिए भेष बदलकर आते थे।


छीतस्वामी एक अच्छे सुकवि, निपुण संगीतज्ञ तथा गुणग्राही व्यक्ति थे। "संप्रदायकल्पद्रुम" के अनुसार यह समय (सं. 1592 वि.) मथुरापुरी से नातिदूर नए बसे "गोकुल" ग्राम में गोस्वामी श्री विठ्ठलनाथ के समृद्ध रूप में विराजने का तथा स्वपुष्टिसंप्रदाय के नाना लोकरंजक रूपों और सुंदर सिद्धांतों को सजाने सँवारने का था। श्री गोस्वामी जी के प्रति अनेक अतिरंजक बातें मथुरा में सुनकर और उनकी परीक्षा लेने जैसी मनोवृत्ति बनाकर एक दिन छीतस्वामी अपने दो-चार साथियों को लेकर, जिन्हें "वार्ता" में गुंडा कहा गया है, गोकुल पहुँचे ओर साथियों को बाहर ही बैठाकर अकेले खोटा रुपया तथा थोथा नारियल ले वहाँ गए जहाँ गोस्वामी विट्ठलनाथ जी अपने ज्येष्ठ पुत्र गिरिधर जी (जं.सं. 1597 वि.) के साथ स्वसंप्रदाय संबंधीं अंतरग बातें कर रहे थे। छीतू गोस्वामी जी गिरिधर जी का दर्शनीय भव्य स्वरूप देखकर स्तब्ध रह गए और मन में सोचने लगे, "बड़ी भूल की जो आपकी परीक्षा लेने के बहाने मसखरी करने यहाँ आया। अरे, ये साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम हैं - "जेई तेई, तेई, एई कछु न संदेह" (छीतस्वामी कृत एक पद का अंश), अत: मुझे धिक्कार है। अरे इन्हीं से तू कुटिलता करने आया? छीतू चौबे इस प्रकार मन ही मन पछतावा कर रही रहे थे कि एकाएक गोस्वामी जी ने इन्हें बाहर दरवाजे के पास खड़ा देखकर बिना किसी पूर्व जान पहचान के कहा "अरे, छीतस्वामी जी बाहर क्यों खड़े हो, भीतर आओ, बहुत दिनन में दीखे।" छीतू चौबे, इस प्रकार अपना मानसहित नाम सुनकर और भी द्रवित हुए तथा तत्क्षण भीतर जाकर दोनों हाथ जोड़कर तथा साष्टांग प्रणाम कर अर्ज की, ""जैराज, मोई सरन में लेउ, मैं मन में भौत कुटिलता लैके यहाँ आयो हो सो सब आपके दरसनन ते भाजि गई।


विट्ठलनाथ के शिष्‍य


 बीस साल की अवस्‍था में छीतस्‍वामी गोसाईं विट्ठलनाथ जी के शिष्‍य हो गये। उन दिनों श्रीविट्ठलनाथ जी की अलौकिक भक्ति निष्‍ठा की चर्चा चारों ओर तेजी से फैल रही थी। कुछ साथियों को लेकर छीत चौबे ने उनकी परीक्षा लेने के‍ लिये गोकुल की यात्रा की। गोसाईं जी के हाथ में सूखे नारियल और खोटे रुपये की भेंट रखी। नारियल में गिरी निकल आयी और खोटा रुपया भी ठीक निकला। गोसाईं जी के दर्शन से छीतस्वामी का मन बदल चुका था। उनके चमत्‍कार से प्रभावित होकर उन्‍होंने क्षमा मोंगी और कहा कि- "मुझे अपनी चरण-शरण के अभय दान से कृतार्थ कीजिये। आप दयासिन्‍धु हैं। हरिभक्तिसुधादान से मेरे पाप-ताप का शमन करके भवसागर से पार होने का मंत्र दीजिये। आपका प्रश्रय छोड़कर दूसरा स्‍थान मेरे लिये है भी तो नहीं, सागर से सरिता मिलती है तो प्‍यासी थोड़े रह जाती है।" श्रीगोसाईं जी महाराज ने उनको ब्रह्मसम्‍बन्‍ध दिया। ==पद रचना गुरु के पादपद्म मकरन्‍द के रसास्‍वादन से प्रमत्‍त होकर छीतस्‍वामी ने अपनी काव्‍य-भारती का आवाहन किया- "भई अब गिरिधर सों पहिचान। कपटरूप धरि छलिबे आये, पुरुषोत्‍तम नहिं जान।। छोटौ बड़ौ कछू नहिं जान्‍यौ, छाय रह्यौ अग्‍यान। "छीत" स्‍वामि देखत अपनायौ, बिट्ठल कृपानिधान।।" दीक्षा ग्रहण के बाद छीतस्‍वामी ने 'नवनी‍तप्रिय' के दर्शन किये। उन्‍होंने गासोईं जी से घर जाने की आज्ञा मांगी। कुछ काल के बाद वे स्‍थायी रूप से गोवर्धन के निकट 'पूंछरी' स्‍थान पर श्‍याम तमाल वृक्ष के नीचे रहने लगे। वे श्रीनाथ जी के सामने कीर्तन करते और उनकी लीला के सरस पदों की रचना करते थे। उनके पद सीधी-सादी सरल भाषा में हैं। ब्रजभूमि के प्रति उनमें प्रगाढ़ अनुराग था।