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अहमद फ़राज़ (१२ जनवरी, १९३१ -अगस्त २५, २००८) का बचपन का नाम सैयद अहमद शाह था । वह प्रसिद्ध पाकिस्तानी उर्दू कवि थे । उनको बीसवीं सदी के महान उर्दू कवियों में गिना जाता है । फ़राज़ उनका तखल्लुस था । उन्होंने पेशावर यूनिवर्सिटी से फ़ारसी और उर्दू की पढ़ाई की और बाद में वहीं लेक्चरर लग गए । जब सैनिक हाकिमों ने उनको सरकार के ख़िलाफ़ बोलने पर गरिफ़्तार किया, तो वह छह साल देश के बाहर रहे। उन्होंने हमेशा ही बेइन्साफ़ी विरुद्ध आवाज़ उठाई । उनके ग़ज़ल/नज़्म संग्रह हैं: दर्द आशोब, पस अन्दाज़-ए-मौसम, शहर-ए-सुख़न अरासता है (कुलीयात), चांद और मैं, नयाफ़त, शब-ए-ख़ूं, तन्हा तन्हा, बे आवाज़ गली कूचों में, जानां जानां, नाबीना शहर में आईना, सब आवाज़ें मेरी हैं, ये मेरी ग़ज़लें वे मेरी नज़्में, ख़ानाबदोश और ज़िंदगी ! ऐ ज़िंदगी !
अहमद फ़राज़ ने रेडियो पाकिस्तान में भी नौकरी की और फिर अध्यापन से भी जुड़े। उनकी प्रसिद्धि के साथ-साथ उनके पद में भी वृद्धि होती रही। वे १९७६ में पाकिस्तान एकेडमी ऑफ लेटर्स के डायरेक्टर जनरल और फिर उसी एकेडमी के चेयरमैन भी बने। २००४ में पाकिस्तान सरकार ने उन्हें हिलाल-ए-इम्तियाज़ पुरस्कार से अलंकृत किया। लेकिन २००६ में उन्होंने यह पुरस्कार इसलिए वापस कर दिया कि वे सरकार की नीति से सहमत और संतुष्ट नहीं थे। उन्हें क्रिकेट खेलने का भी शौक था। लेकिन शायरी का शौक उन पर ऐसा छाया कि वे अपने समय के ग़ालिब कहलाए। उनकी शायरी के कई संग्रह प्रकाशित हुए। ग़ज़लों के साथ ही उन्होंने नज़्में भी लिखी। लेकिन लोग उनकी ग़ज़लों के दीवाने हैं
लोकप्रियता
जब बात उर्दू ग़ज़ल की परम्परा की हो रही होती है तो हमें मीर तक़ी मीर, ग़ालिब आदि की चर्चा ज़रूर करनी होती है। मगर बीसवीं शताब्दी में ग़ज़ल की चर्चा हो और विशेष रूप से 1947 के बाद की उर्दू ग़ज़ल का ज़िक्र हो तो उसके गेसू सँवारने वालों में जो नाम लिए जाएँगे उनमें अहमद फ़राज़ का नाम कई पहलुओं से महत्त्वपूर्ण है। अहमद ‘फ़राज़’ ग़ज़ल के ऐसे शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को जनता में लोकप्रिय बनाने का क़ाबिले-तारीफ़ काम किया। ग़ज़ल यों तो अपने कई सौ सालों के इतिहास में अधिकतर जनता में रुचि का माध्यम बनी रही है, मगर अहमद फ़राज़ तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और जब फ़राज़ ने अपने कलाम के साथ सामने आए, तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ीं। ख़ुशी यह कि ‘फ़राज़’ ने मायूस नहीं किया। अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साँचे में ढाल कर जो ग़ज़ल उन्होंने पेश की वह जनता की धड़कन बन गई और ज़माने का हाल बताने के लिए आईना बन गई। मुशायरों ने अपने कलाम और अपने संग्रहों के माध्यम से अहमद फ़राज़ ने कम समय में वह ख्याति अर्जित कर ली जो बहुत कम शायरों को नसीब होती है। बल्कि अगर ये कहा जाए तो गलत न होगा कि इक़बाल के बाद पूरी बीसवीं शताब्दी में केवल फ़ैज और फ़िराक का नाम आता है जिन्हें शोहरत की बुलन्दियाँ नसीब रहीं, बाकी कोई शायर अहमद फ़राज़ जैसी शोहरत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया। उसकी शायरी जितनी ख़ूबसूरत है, उनके व्यक्तित्व का रखरखाव उससे कम ख़ूबसूरत नहीं रहा।
राजनीतिक गतिविधि
फ़रात को उन कविताओं को लिखने के लिए गिरफ्तार किया गया, जिन्होंने पाकिस्तान के सैन्य शासकों की जिया-उल-हक युग के दौरान आलोचना की। उस गिरफ्तारी के बाद, वह एक आत्म-निर्वासित निर्वासन में चला गया। पाकिस्तान लौटने से पहले वह ब्रिटेन, कनाडा और यूरोप में 6 साल तक रहे, जहां उन्हें पाकिस्तान अकादमी ऑफ लेटर के अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया था और बाद में कई वर्षों से इस्लामाबाद स्थित नेशनल बुक फाउंडेशन के अध्यक्ष थे। उन्हें कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है 2006 में, उन्होंने 2004 में हिलाल-ए-इम्तियाज पुरस्कार से सम्मानित किया।
उसने अपने वर्तमान लेखों का उल्लेख किया और कहा: "अब मैं केवल तब लिखता हूं जब मैं अंदर से मजबूर हूं।" अपने संरक्षक, क्रान्तिकारी फैज अहमद फैज द्वारा स्थापित परंपरा को बनाए रखने के दौरान, उन्होंने अपने निर्वासन में होने वाले दिनों में कुछ बेहतरीन कविता लिखी। 'प्रतिरोध की कविता' के बीच प्रसिद्ध "महासार" है। फरहाज़ को अभिनेता शाहजादा गफ़र ने पोथवारी / मिरपुरी टेलिफिल्म "खाई ऐ ओ" में भी उल्लेख किया था।
साहित्य
उनकी ग़ज़लों और नज़्मों के कई संग्रह प्रकाशित हुए हैं, जिनमें खानाबदोश, ज़िंदगी! ऐ ज़िंदगी और दर्द आशोब (ग़ज़ल संग्रह) और ये मेरी ग़ज़लें ये मेरी नज़्में (ग़ज़ल और नज़्म संग्रह) शामिल हैं।
कुछ रचनाएँ
मैं दीवाना सही पर बात सुन ऐ हमनशीं मेरी
कि सबसे हाले-दिल कहता फिरूँ आदत नहीं मेरी
तअम्मुल1 क़त्ल में तुझको मुझे मरने की जल्दी थी
ख़ता दोनों की है उसमें, कहीं तेरी कहीं मेरी
भला क्यों रोकता है मुझको नासेह गिर्य:2 करने से
कि चश्मे-तर मेरा है, दिल मेरा है, आस्तीं मेरी
मुझे दुनिया के ग़म और फ़िक्र उक़बा3 की तुझे नासेह
चलो झगड़ा चुकाएँ आसमाँ तेरा ज़मीं मेरी
मैं सब कुछ देखते क्यों आ गया दामे-मुहब्बत में
चलो दिल हो गया था यार का, आंखें तो थीं मेरी
‘फ़राज़’ ऐसी ग़ज़ल पहले कभी मैंने न लिक्खी थी
मुझे ख़ुद पढ़के लगता है कि ये काविश4 नहीं मेरी
1. हिचकिचाहट, देरी, फ़िक्र, संकोच 2. रोना, विलाप, 3. परलोक 4. प्रयास
निधन
25 अगस्त 2008 को इस्लामाबाद के एक निजी अस्पताल में गुर्दा की विफलता से फराज़ का निधन हो गया। 26 अगस्त की शाम को इस्लामाबाद, पाकिस्तान के एच -8 कब्रिस्तान के कई प्रशंसकों और सरकारी अधिकारियों के बीच उनकी अंतिम संस्कार संपन्न हुआ