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टीपू सुल्तान का जन्म 20 नवम्बर 1750 में वर्तमान बेंगलुरु के देवानाहली स्थान पर हुआ | उनका नाम Tipu Sultan टीपू सुल्तान आरकोट के औलिया टीपू मस्तान के नाम पर रखा गया | Tipu Sultan टीपू को उनके दादाजी फ़तेह मुहह्म्म्द के नाम पर फ़तेह अली भी कहते थे | Tipu Sultan टीपू के पिता का नाम हैदर अली था जो खुद अनपढ़ होते हुए भी अपने पुत्र को पढाया | टीपू ने बचपन में पढाई के साथ साथ सैन्य शिक्षा और राजनीतिक शिक्षा भी ली | 17 वर्ष की उम्र में उनको महत्वपूर्ण राजनयिक और सैन्य मिशन में स्वतंत्र प्रभार दे दिया गया | वो युद्ध में अपने पिता का दाया हाथ था जिससे हैदर दक्षिणी भारत का एक शक्तिशाली शाषक बना था |
टीपू के पिता हैदर अली मैसूर राज्य में एक सैन्य अधिकारी थे जिन्होंने अपनी शक्ति बढ़ाते हुए 1761 में मैसूर के वास्तविक शासक बन गये | हैदर के वंशज अरब के खुरैशी वंश के थे | हैदर के पिता फ़तेह मुह्हमद कर्नाटक के नवाब के यहा बांस रॉकेट तोपखाने में 50 आदमियों के सेनापति थे | टीपू की माँ फख्र्र-उन-निसा कडपा किले के नियंत्रक मीर मुइनुद्देन की बेटी थी | हैदर अली ने Tipu Sultan टीपू की शिक्षा के लिए योग्य शिक्षको की नियुक्ति की थी जिन्होंने उसे हिंदी , उर्दू ,पारसी ,अरबी ,कन्नड़ भाषाओ के साथ साथ कुरान ,इस्लामी न्यायशास्त्र ,घुडसवारी, निशानेबाजी और तलवारबाजी की भी शिक्षा दी | टीपू की पत्नी सिंध सुल्तान थी |
टीपू सुल्तान काफ़ी बहादुर होने के साथ ही दिमागी सूझबूझ से रणनीति बनाने में भी बेहद माहिर था। अपने शासनकाल में भारत में बढ़ते ईस्ट इंडिया कंपनी के साम्राज्य के सामने वह कभी नहीं झुका और उसने अंग्रेज़ों से जमकर लोहा लिया। मैसूर की दूसरी लड़ाई में अंग्रेज़ों को खदेड़ने में उसने अपने पिता हैदर अली की काफ़ी मदद की। उसने अपनी बहादुरी से जहाँ कई बार अंग्रेज़ों को पटखनी दी, वहीं निज़ामों को भी कई मौकों पर धूल चटाई। अपनी हार से बौखलाए हैदराबाद के निज़ाम ने टीपू सुल्तान से गद्दारी की और अंग्रेज़ों से मिल गया।
कुशल योद्धा :
टीपू ने 18 वर्ष की उम्र में अंग्रेज़ों के विरुद्ध पहला युद्ध जीता था. टीपू काफी बहादुर होने के साथ ही दिमागी सूझबूझ से रणनीति बनाने में भी बेहद माहिर थे. अपने शासनकाल में भारत में बढ़ते ईस्ट इंडिया कंपनी के साम्राज्य के सामने वह कभी नहीं झुके और अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया. मैसूर की दूसरी लड़ाई में अंग्रेजों को शिकस्त देने में उन्होंने अपने पिता हैदर अली की काफी मदद की. उन्होंने अंग्रेजों ही नहीं बल्कि निजामों को भी धूल चटाई.
अपनी हार से बौखलाए हैदराबाद के निजाम ने टीपू से गद्दारी की और अंग्रेजों से मिल गया. मैसूर की तीसरी लड़ाई में जब अंग्रेज टीपू को नहीं हरा पाए तो उन्होंने टीपू के साथ मेंगलूर संधि की लेकिन इसके बावजूद अंग्रेजों ने उन्हें धोखा दिया. फिर जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने हैदराबाद के साथ मिलकर चौथी बार टीपू पर हमला किया तब अपनी कूटनीतिज्ञता और दूरदर्शिता में कमी की वजह से उन्हें हार का सामना करना पड़ा. आखिरकार 4 मई सन् 1799 ई. को मैसूर का शेर श्रीरंगपट्टनम की रक्षा करते हुए शहीद हो गया.
विकास कार्य :
टीपू की शहादत के बाद अंग्रेज़ श्रीरंगपट्टनम से दो रॉकेट ब्रिटेन के 'वूलविच संग्रहालय' की आर्टिलरी गैलरी में प्रदर्शनी के लिए ले गए। सुल्तान ने 1782 में अपने पिता के निधन के बाद मैसूर की कमान संभाली थी और अपने अल्प समय के शासनकाल में ही विकास कार्यों की झड़ी लगा दी थी। उसने जल भंडारण के लिए कावेरी नदी के उस स्थान पर एक बाँध की नींव रखी, जहाँ आज 'कृष्णराज सागर बाँध' मौजूद है।
टीपू ने अपने पिता द्वारा शुरू की गई 'लाल बाग़ परियोजना' को सफलतापूर्वक पूरा किया। टीपू निःसन्देह एक कुशल प्रशासक एवं योग्य सेनापति था। उसने 'आधुनिक कैलेण्डर' की शुरुआत की और सिक्का ढुलाई तथा नाप-तोप की नई प्रणाली का प्रयोग किया। उसने अपनी राजधानी श्रीरंगपट्टनम में 'स्वतन्त्रता का वृक्ष' लगवाया और साथ ही 'जैकोबिन क्लब' का सदस्य भी बना। उसने अपने को नागरिक टीपू पुकारा।
हिंदू संस्थाओं के लिए उपहार :
1791 में रघुनाथ राव पटवर्धन के कुछ मराठा सवारों ने श्रृंगेरी शंकराचार्य के मंदिर और मठ पर छापा मारा। उन्होंने मठ की सभी मूल्यवान संपत्ति लूट ली। इस हमले में कई लोग मारे गए और कई घायल हो गए। शंकराचार्य ने मदद के लिए टीपू सुल्तान को अर्जी दी। शंकराचार्य को लिखी एक चिट्ठी में टीपू सुल्तान ने आक्रोश और दु:ख व्यक्त किया। इसके बाद टीपू ने बेदनुर के आसफ़ को आदेश दिया कि शंकराचार्य को 200 राहत (फ़नम) नक़द धन और अन्य उपहार दिये जायें।
श्रृंगेरी मंदिर में टीपू सुल्तान की दिलचस्पी काफ़ी सालों तक जारी रही, और 1790 के दशक में भी वे शंकराचार्य को खत लिखते रहे। टीपू के यह पत्र तीसरे मैसूर युद्ध के बाद लिखे गए थे, जब टीपू को बंधकों के रूप में अपने दो बेटों देने सहित कई झटकों का सामना करना पड़ा था। यह सम्भव है कि टीपू ने ये खत अपनी हिन्दू प्रजा का समर्थन हासिल करने के लिए लिखे थे।
टीपू सुल्तान ने अन्य हिंदू मन्दिरों को भी तोहफ़े पेश किए। मेलकोट के मन्दिर में सोने और चांदी के बर्तन है, जिनके शिलालेख बताते हैं कि ये टीपू ने भेंट किए थे। ने कलाले के लक्ष्मीकान्त मन्दिर को चार रजत कप भेंटस्वरूप दिए थे। 1782 और 1799 के बीच, टीपू सुल्तान ने अपनी जागीर के मन्दिरों को 34 दान के सनद जारी किए। इनमें से कई को चांदी और सोने की थाली के तोहफे पेश किए।
टीपू सुल्तान के बारे में :
1. टीपू सुल्तान का पूरा नाम ‘सुल्तान फतेह अली खान शाहाब’ था। ये नाम उनके पिता ने रखा था।
2. टीपू सुल्तान एक बादशाह बन कर पूरे देश पर राज करना चाहता था लेकिन उनकी ये इच्छा पूरी नही हुई।
3. टीपू ने 18 वर्ष की उम्र में अंग्रेजों के विरुद्ध पहला युद्ध जीता था।
4. टीपू सुल्तान को “शेर-ए-मैसूर” इसलिए कहा जाता हैं, Q कि उन्होनें 15 साल की उम्र से अपने पिता के साथ जंग में हिस्सा लेने की शुरूआत कर दी थी। पिता हैदर अली ने अपने बेटे टीपू को बहुत मजबूत बनाया और उसे हर तरह की शिक्षा दी।
5. टीपू अपने आसपास की चीजों का इस्लामीकरण चाहता था। उसने बहुत सी जगहों का नाम बदलकर मुस्लिम नामों पर रखा। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद सभी जगहों के नाम फिर से पुराने रख दिए गए।
6. टीपू ने गद्दी पर बैठते ही मैसूर को मुस्लिम राज्य घोषित कर दिया। उसने करीब 1 करोड़ हिंदुओं का धर्म परिवर्तन कराकर उन्हें मुसलमान बना दिया। लेकिन टीपू की मृत्यु के बाद वे दोबारा हिंदू बन गए।
7. टीपू सुल्तान की तलवार पर रत्नजड़ित बाघ बना हुआ था। बताया जाता हैं कि टीपू की मौत के बाद ये तलवार उसके शव के पास पड़ी मिली थी।
8. आज के समय में टीपू की तलवार की कीमत 21 करोड़ रूपए हैं।