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राजा महेन्द्र प्रताप (जन्म: 1 दिसम्बर, 1886, मुरसान, उत्तर प्रदेश; मृत्यु: 29 अप्रैल, 1979) एक सच्चे देशभक्त, क्रान्तिकारी, पत्रकार और समाज सुधारक थे। ये 'आर्यन पेशवा' के नाम से प्रसिद्ध थे।
हाथरस के राजा दयाराम ने 1817 में अंग्रेजों से भीषण युध्द किया। मुरसान के राजा ने भी युद्ध में जमकर साथ दिया। अंग्रेजों ने दयाराम को बंदी बना लिया। 1841 में दयाराम का देहान्त हो गया। उनके पुत्र गोविन्दसिंह गद्दी पर बैठे। 1857 में गोविन्दसिंह ने अंग्रेजों का साथ दिया फिर भी अंग्रेजों ने गोविन्दसिंह का राज्य लौटाया नहीं - कुछ गाँव, 50 हजार रुपये नकद और राजा की पदवी देकर हाथरस राज्य पर पूरा अधिकार छीन लिया। राजा गोविन्दसिंह की 1861 में मृत्यु हुई। संतान न होने पर अपनी पत्नी को पुत्र गोद लेने का अधिकार दे गये। अत: रानी साहबकुँवरि ने जटोई के ठाकुर रूपसिंह के पुत्र हरनारायण सिंह को गोद ले लिया। अपने दत्तक पुत्र के साथ रानी अपने महल वृन्दावन में रहने लगी। राजा हरनारायणसिंह अंग्रेजों के भक्त थे। उनके कोई पुत्र नहीं था। अत: उन्होंने मुरसान के राजा घनष्यामसिंह के तीसरे पुत्र महेन्द्र प्रताप को गोद ले लिया। इस प्रकार महेन्द्र प्रताप मुरसान राज्य को छोड़कर हाथरस राज्य के राजा बने। हाथरस राज्य का वृन्दावन में विशाल महल है उसमें ही महेन्द्र प्रताप का षैशव काल बीता। बड़ी सुख सुविधाएँ मिली। महेन्द्र प्रताप का जन्म 1 दिसम्बर 1886 को हुआ। अलीगढ़ में सर सैयद खाँ द्वारा स्थापित स्कूल में बी. ए. तक शिक्षा ली लेकिन बी. ए. की परीक्षा में पारिवारिक संकटों के कारण बैठ न सके।
जिंद रियासत के राजा की राजकुमारी से संगरूर में विवाह हुआ। दो स्पेशल ट्रेन बारात लेकर गई। बड़ी धूमधाम से विवाह हुआ। विवाह के बाद जब कभी महेन्द्र प्रताप ससुराल जाते तो उन्हें 11 तोपों की सलामी दी जाती। स्टेशन पर सभी अफसर स्वागत करते।
उन्होंने "आजाद हिन्द फ़ौज" का गठन किया हालांकि उनकी फ़ौज का बाद में बनी "रास विहारी बोस" / "सुभाष चन्द्र बोस" वाली आजाद हिन्द फ़ौज से कोई सम्बन्ध नहीं था. अफगानिस्तान के साथ मिलकर आजाद हिन्द फ़ौज ने अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया. भारत को आजाद घोषित कर उन्होंने स्वयं को भारत का प्रथम राष्ट्रपति घोषित किया.
उसके बाद वे रूस गये और लेनिन से मिले परंतु लेनिन ने कोई सहायता नहीं की. 1920 से 1946 तक वे विदेशों में भ्रमण कर आजादी की अलख जगाते रहे. उनके बाप-दादा भले ही अंग्रेजों के भक्त रहे हों, मगर उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की जंग में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. वे आजाद भारत में लोकसभा के सदस्य भी रहे.
"राजा महेंद्र प्रताप सिंह" पूरी तरह से धर्म-निरपेक्ष थे और हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे. उन्होंने "अलीगढ़ मुस्लिम विश्व विद्यालय" के विस्तार के लिए जमीन दान में दी थी. इसके अलावा "वृन्दावन" में 80 एकड़ का एक बाग़ "आर्य प्रतिनिधि सभा" को दान में दे दिया था, जिसमें "आर्य समाज गुरुकुल" और "राष्ट्रीय विश्वविद्यालय" है.
वे जातिगत छुआछूत के घोर बिरोधी और भारतीयों को उच्च शिक्षा देने के पक्षधर थे और इसीलिए शैक्षिक संस्थाओं को हमेशा मदद दिया करते थे. उनकी राष्ट्रवादी सोंच के कारण कांग्रेस में रहने के बाबजूद कुछ कांग्रेसी नेता उन पर RSS का एजेंट होने का आरोप लगाते रहते थे और इसी कारण उनको वो सम्मान नहीं मिला जिसके वे हकदार थे.
प्रेम महाविद्यालय की स्थापना
राजा साहब अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति प्रेम विद्यालय को दान करना चाहते थे, परन्तु महामना मालवीय जी के यह समझाने पर कि यह पुश्तैनी रियासत है, आप सब दान नहीं दे सकते, राजा साहब ने अपनी आधी सम्पत्ति (पांच गांव और दो महल) विद्यालय को दान कर दिये। अपनी माताओं के निवास के लिए विद्यालय को दान दी गई सम्पत्ति में से ही राजा साहब ने 10,000 रुपये देकर अपनी ही केलाकुंज को विद्यालय से पुन: ख़रीदा और वहाँ माताओं के रहने की व्यवस्था की। एक ट्रस्ट बनाकर सन 1909 में विद्यालय के लिए सम्पत्ति की रजिस्ट्री करा दी गई और महारानी विक्टोरिया के जन्म दिन पर इस विद्यालय को शुरू किया गया।
मुरसान राज्य
मुरसान राज्य के संस्थापक नन्दराम सिंह अपने परदादा माखनसिंह की तरह असीम साहसिक तथा रणनीति और राजनीति में पारंगत थे। औरंगज़ेब को नन्दराम सिंह ने अपने कारनामों से इतना आतंकित कर दिया, जिससे मुग़ल दरबार में नन्दराम सिंह को फ़ौजदार की उपाधि देकर संतोष की साँस ली। नन्दराम सिंह ने पहली बार मुरसान का इलाका भी अपने अधिकार में कर लिया और वे एक रियासतदार के रूप में प्रसिद्ध हुए। इनके चौदह पुत्र थे, जिनमें से जलकरन सिंह, खुशालसिंह, जैसिंह, भोजसिंह, चूरामन, जसवन्तसिंह, अधिकरणसिंह और विजयसिंह इन आठ पुत्रों के नाम ही ज्ञात हो सके हैं। पहले जलकरनसिंह और उनकी मृत्यु के बाद खुशालसिंह नन्दराम सिंह के उत्तराधिकारी हुए। इन्होंने अपने पिता की उपस्थिति में ही मुरसान में सुदृढ़ क़िला बनवाया और पिता के उपार्जित इलाके में भी वृद्धि की। सआदतुल्ला से बहुत सा इलाका छीन कर मथुरा, अलीगढ़, हाथरस के अंतवर्ती प्रदेश को भी इन्होंने अपने राज्य में मिला लिया, घोड़े और तोपों की संख्या में भी वृद्धि की। शेष भाइयों में से चूरामन, जसवंतसिंह, अधिकरणसिंह और विजयसिंह ने क्रमश: तोछीगढ़, बहरामगढ़ी, श्रीनगर और हरमपुर में अपना अधिकार स्थापित किया। नन्दराम सिंह ने अपनी आंखों से ही अपनी संतति के हाथों अपने राज्य-वैभव की वृद्धि होती देखी। यह 40 वर्ष राज्य करके सन 1695 ई. में स्वर्ग सिधारे