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राजा

गयासुद्दीन बलबन जीवनी - Biography of Ghiyas ud din Balban in Hindi Jivani

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गयासुद्दीन बलबन इसका वास्तविक नाम बहाउदीन था।(1266 – 1286) दिल्ली सल्तनत में ग़ुलाम वंश का एक शासक था। उसने सन् 1266 से 1286 तक राज्य किया। गयासुद्दीन बलबन, जाति से इलबारी तुर्क था। उसकी जन्मतिथि का पता नहीं। उसका पिता उच्च श्रेणी का सरदार था। बाल्यकाल में ही मंगोलों ने उसे पकड़कर बगदाद के बाजार में दास के रूप में बेच दिया। भाग्यचक्र उसको भारतवर्ष लाया। सुलतान इलतुत्मिश ने उस पर दया करके उसे मोल ले लिया। स्वामिभक्ति और सेवाभाव के फलस्वरूप वह निरंतर उन्नति करता गया, यहाँ तक कि सुलतान ने उसे चेहलगन के दल में सम्मिलित कर लिया। रज़िया के राज्यकाल में उसकी नियुक्ति अमीरे शिकार के पद पर हुई। 


बहराम ने उसको रेवाड़ी तथा हांसी के क्षेत्र प्रदान किए। सं. 1245 ई. में मंगोलों से लोहा लेकर अपने सामरिक गुण का प्रमाण दिया। आगामी वर्ष जब नासिरुद्दीन महमूद सिंहासनारूढ़ हुआ तो उसने बलबन को मुख्य मंत्री के पद पर आसीन किया। 20 वर्ष तक उसने इस उत्तरदायित्व को निबाहा। इस अवधि में उसके समक्ष जटिल समस्याएँ प्रस्तुत हुईं तथा एक अवसर पर उसे अपमानित भी होना पड़ा, परंतु उसने न तो साहस ही छोड़ा और न दृढ़ संकल्प। वह निरंतर उन्नति की दिशा में ही अग्रसर रहा। 


उसने आंतरिक विद्रोहों का दमन किया और बाह्य आक्रमणों को असफल। सं. 1246 में दुआबे के हिंदू जमींदारों की उद्दंडता का दमन किया। तत्पश्चात् कालिंजर व कड़ा के प्रदेशों पर अधिकार जमाया। प्रसन्न होकर सं. 1249 ई. में सुल्तान ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ किया और उसको नायब सुल्तान की उपाधि प्रदान की। सं. 1252 ई. में उसने ग्वालियर, चंदेरी और मालवा पर अभियान किए।


दिल्ली की गद्दी पर के अपने पूर्वगामियों की तरह बलबन भी तुर्किस्तान की विख्यात इलबरी जाति का था। प्रारम्भिक युवा-काल में उसे मंगोल बन्दी बना कर बगदाद ले गये थे। वहाँ बसरा के ख्वाजा जमालुद्दीन नामक एक धर्मनिष्ठ एवं विद्वान् व्यक्ति ने उसे खरीद लिया। ख्वाजा जमालुद्दीन अपने अन्य दासों के साथ उसे 1232 ई. में दिल्ली ले आया। इन सबको सुल्तान इल्तुतमिश ने खरीद लिया। इस प्रकार बलबन इल्तुतमिश के चेहलागान नामक तुर्की दासों के प्रसिद्ध दल का था। 


सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने उसे खासदार (सुल्तान का व्यक्तिगत सेवक) नियुक्त किया परन्तु गुण एवं योग्यता के बल पर वह क्रमशः उच्चतर पदों एवं श्रेणियों को प्राप्त करता गया। बहराम के समय वह अमीर-ए-अखुर बना तथा मसूद शाह के समय अमीर-ए-हाजिब बन गया। अन्त में वह नसिरुद्दीन महमूद का प्रतिनिधि (नायबे-मामलिकत) बन गया तथा 1249 ई. में उसकी कन्या का विवाह सुल्तान से हो गया।


सिंहासन पर बैठने के बाद बलबन को विकट परिस्थिति का सामना करना पड़ा। इल्तुतमिश की मृत्यु के पश्चात् तीस वर्षों के अन्दर राजकाज में उसके उत्तराधिकारियों की अयोग्यता के कारण गड़बड़ी आ गयी थी। दिल्ली सल्तनत का खजाना प्राय: खाली हो चुका था तथा इसकी प्रतिष्ठा नीचे गिर गयी थी। तुर्की सरदारों की महत्त्वाकांक्षा एवं उद्दंडता बढ़ गयी थी।


बलबन एक अनुभवी शासक था। वह उत्सुकता से उन दोषों को दूर करने में लग गया, जिनसे राज्य एक लम्बी अवधि से ग्रस्त था। उसने ठीक ही महसूस किया कि अपने शासन की स्थिरता के लिए एक मजबूत एवं कार्यक्षम सेना नितान्त आवश्यक है। अत: वह सेना को पुर्नसंगठित करने में लग गया। अश्वारोही एवं पदाति-नये तथा पुराने दोनों ही- अनुभवी एवं विश्वसनीय मलिकों के अधीन रख दिये गये।


बलबन की नीति व सिद्धांत :


पश्चिमोत्तर सीमा प्रान्त पर मंगोल आक्रमण के भय को समाप्त करने के लिए बलबन ने एक सुनिश्चत योजना का क्रियान्वयन किया। उसने सीमा पर कीलों की एकतार बनवायी और प्रत्येक क़िले में एक बड़ी संख्या में सेना रखी। कुछ वर्षो के पश्चात् उत्तर-पश्चिमी सीमा को दो भागों में बांट दिया गया। लाहौर, मुल्तान और दिपालपुर का क्षेत्र शाहज़ादा मुहम्मद को और सुमन, समाना तथा कच्छ का क्षेत्र बुगरा ख़ाँ को दिया गया।प्रत्येक शाहज़ादे के लिए प्रायः 18 हज़ार घुड़सवारों की एक शक्तिशाली सेना रखी गयी। उसने सैन्य विभाग ‘दीवान-ए-अर्ज’ को पुनर्गठित करवाया, इमादुलमुल्क को दीवान-ए-अर्ज के पद पर प्रतिष्ठित किया तथा सीमान्त क्षेत्र में स्थित क़िलों का पुननिर्माण करवाया।


बलबन के सिद्धांत व उसकी नीति सल्तनतकालीन राजत्व सिद्धांत का प्रमुख बिन्दू है। उसने दीवान-ए-अर्ज को वज़ीर के नियंत्रण से मुक्त कर दिया, जिससे उसे धन की कमी न हो। बलबन की अच्छी सेना व्यवस्था का श्रेय इमादुलमुल्क को ही था। साथ ही उसने अयोग्य एवं वृद्ध सैनिकों को वेतन का भुगतान नकद वेतन में किया। उसने तुर्क प्रभाव को कम करने के लिए फ़ारसी परम्परा पर आधारित ‘सिजदा’ (घुटने पर बैठकर सम्राट के सामने सिर झुकाना) एवं ‘पाबोस’ (पांव को चूमना) के प्रचलन को अनिवार्य कर दिया। 


बलबन ने गुप्तचर विभाग की स्थापना राज्य के अन्तर्गत होने वाले षड़यन्त्रों एवं विद्रोह के विषय में पूर्व जानकारी के लिए किया। गुप्तचरों की नियुक्त बलबन स्वयं करता था और उन्हें पर्याप्त धन उपलब्ध कराता था। कोई भी गुप्तचर खुले दरबार में उससे नहीं मिलता था। यदि कोई गुप्तचर अपने कर्तव्य की पूर्ति नहीं करता था, तो उसे कठोर दण्ड दिया जाता था। उसने फ़ारसी रीति-रिवाज पर आधारित नवरोज उत्सव को प्रारम्भ करवाया।


बलबन ने किया स्वतंत्रता आंदोलनों का क्रूरता पूर्वक दमन :


बलबन इतिहास में अपनी क्रूरता के लिए प्रसिद्घ है। हिंदुओं ने उसे नासिरूद्दीन के समय से ही नाकों चने चबा दिये थे और उसे बहुत छकाया भी था। अत: वह हिन्दुओं के प्रति पूर्णत: आक्रोश से भरा हुआ था। इसलिए राज्यसिंहासनारूढ़ होते ही उसने हिंदुओं के स्वतंत्रता आंदोलनों को क्रूरता से दमन करने का निर्णय लिया।


मेवातियों का किया सफाया :


        सबसे प्रथम उसने मेवातियों का सुनियोजित ढंग से सफाया करने की योजना बनायी। जिस जंगल में मेवाती जाकर छिपते थे, उसने उसे चारों ओर से अपनी सेना से घिरवाकर एक ओर से कटवाना आरंभ कर दिया। पूरे जंगल में जहां कहीं भी कोई मेवाती देशभक्त यदुवंशी हिन्दू मिलता, उसे वहीं चूहे की भांति मार दिया जाता। एक ओर से लगातार दूसरी ओर तक इसी प्रकार पूरा जंगल काट दिया गया। बहुत से मेवातियों को हिंदू से मुसलमान बना दिया गया, और जो नही बने उन्हें गाजर मूली की भांति काट दिया गया।


        पूरे मेवात में आज जितने भर भी मुसलमान हैं वे सभी यदुवंशी हिंदू हैं, जो उस समय नितांत राष्ट्रभक्त थे और उनकी अनन्य राष्ट्रभक्ति का पुरस्कार ही उन्हें ये मिला था कि उनका धर्मांतरण कर दिया गया। अपने इतिहास और इतिहास पुरूषों के प्रति श्रद्घा आवश्यक होती है। यदि ऐसा नही होता है तो व्यक्ति राष्ट्र के प्रति निष्ठावान नही रह पाता है। देश में जहां-जहां भी मध्यकालीन इतिहास में इस धर्मांतरण की प्रक्रिया को अपनाया गया, वहीं वहीं के परिणाम ये आये हैं कि लोगों की अपने धर्म, अपने राष्ट्र अपनी भाषा और अपनी संस्कृति के प्रति अलगाव की भावना में वृद्घि हुई है।