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चन्द्रगुप्त द्वितीय महान जिनको संस्कृत में विक्रमादित्य या चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से जाना जाता है; गुप्त वंश के एक महान शक्तिशाली सम्राट थे। उनका राज्य 380-412 ई तक चला जिसमें गुप्त राजवंश ने अपना शिखर प्राप्त किया। गुप्त साम्राज्य का वह समय भारत का स्वर्णिम युग भी कहा जाता है। चन्द्रगुप्त द्वितीय महान अपने पूर्व राजा समुद्रगुप्त महान के पुत्र थे। उसने आक्रामक विस्तार की नीति एवं लाभदयक पारिग्रहण नीति का अनुसार करके सफलता प्राप्त की।
चंद्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य (380 ई - 412 ई.) समुद्रगुप्त के एरण अभिलेख से स्पष्ट है कि उनके बहुत से पुत्र पौत्र थे, किंतु अपने अंतिम समय में उन्होंने चंद्रगुप्त को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। चंद्रगुप्त द्वितीय एवं परवर्ती गुप्तसम्राटों के अभिलेखों से भी यही ध्वनित होता है कि समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरांत चंद्रगुप्त द्वितीय ही गुप्तसम्राट् हुए। किंतु इसके विपरीत, अंशरूप में उपलब्ध 'देवीचंद्रगुप्तम्' एवं कतिपय अन्य साहित्यिक तथा पुरातात्विक अभिलेख संबंधी प्रमाणों के आधार पर कुछ विद्वान् रामगुप्त को समुद्रगुप्त का उत्तराधिकारी प्रमाणित करते हैं। रामगुप्त की अयोग्यता का लाभ उठाकर चंद्रगुप्त ने उसके राज्य एवं रानी दोनों का हरण कर लिया। रामगुप्त की एतिहासिकता संदिग्ध है। भिलसा आदि से प्राप्त ताम्र सिक्कों का रामगुप्त उस प्रदेश का कोई स्थानीय शासक ही रहा होगा।
चंद्रगुप्त द्वितीय की तिथि का निर्धारण उनके अभिलेखों आदि के आधार पर किया जाता है। चंद्रगुप्त का, गुप्तसंवत् 61 (380 ई.) में उत्कीर्ण मथुरा स्तंभलेख, उनके राज्य के पाँचवें वर्ष में लिखाया गया था। फलत: उनका राज्यारोहण गुप्तसंवत् 61-5= 56= 375 ई. में हुआ। चंद्रगुप्त द्वितीय की अंतिम ज्ञात तिथि उनकी रजतमुद्राओं पर प्राप्त हाती है- गुप्तसंवत् 90+ 0= 409- 410 ई.। इससे अनुमान कर सकते हैं कि चंद्रगुप्त संभवत: उपरिलिखित वर्ष तक शासन कर रहे थे। इसके विपरीत कुमारगुप्त प्रथम की प्रथम ज्ञात तिथि गुप्तसंवत् 96= 415 ई., उनके बिलसँड़ अभिलेख से प्राप्त होती है। इस आधर पर, ऐसा अनुमान किया जाता है कि, चंद्रगुप्त द्वितीय के शासनकाल का समापन 413-14 ई. में हुआ होगा।
चंद्रगुप्त द्वितीय के विभिन्न लेखों से ज्ञात देवगुप्त एवं देवराज-अन्य नाम प्रतीत होते हैं। अभिलेखों एवं मुद्रालेखों से उनकी विभिन्न उपाधियों- महाराजाधिराज, परमभागवत, श्रीविक्रम, नरेंद्रचंद्र, नरेंद्रसिंह, विक्रमांक एव विक्रमादित्य आदि- का ज्ञान होता है।
एक महान् विजेता होने के साथ चन्द्रगुप्त द्वितीय एक कुशल शासक भी था। उसने शासन की सुव्यवस्था की दृष्टि से विशाल गुप्त साम्राज्य को कई प्रान्तों में विभाजित कर दिया था (प्रान्तों को मुक्ति कहते थे)। प्रान्तों को जिलों में विभाजित कर दिया जाता था। जिला को विषय कहते थे। शासन में शीर्ष पर सम्राट् था जो समस्त सैविक और शासकीय शक्तियों का सर्वोच्च पदाधिकारी था। उसकी सहायता के लिए एक मंत्रि परिषद् होती थी। महाराजाधिराज, महाराज, परम भट्टारक, परम भागवत आदि उसकी विविध उपाधियाँ थीं।
गुप्त साम्राज्य में चन्द्रगुप्त द्वितीय का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। भारत की साहित्यिक परम्परा में विक्रमादित्य का उल्लेखनीय स्थान है। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में भी भारतीय धर्म, कला, संस्कृति आदि विभिन्न क्षेत्रों में उन्नति हुई।
चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन-काल के कई अभिलेख उपलब्ध हुए हैं जिनमें से कई तिथियुक्त भी हैं। काल क्रम की दृष्टि से मथुरा का स्तम्भ लेख सबसे पहला है। संस्कृत भाषा में लिखा हुआ यह पहला प्रमाणिक गुप्त लेख है जिसमें तिथि का उल्लेख हुआ है। अभिलेखों में परमभृट्टारक एवं महाराज की उपाधियाँ प्रयुक्त मिलती हैं। पाशुपत धर्म की लोकप्रियता का बोध होता है और पाशुपति धर्म के लकुलीश सम्प्रदाय की मथुरा में लोकप्रियता ज्ञात होती है।
उपाधियाँ
गुजरात-काठियावाड़ के शकों का उच्छेद कर उनके राज्य को गुप्त साम्राज्य के अंतर्गत कर लेना चंद्रगुप्त द्वितीय के शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है। इसी कारण वह भी 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' कहलाया। कई सदी पहले शकों का इसी प्रकार से उच्छेद कर सातवाहन सम्राट 'गौतमी पुत्र सातकर्णि' ने 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' की उपाधियाँ ग्रहण की थीं। अब चंद्रगुप्त द्वितीय ने भी एक बार फिर उसी गौरव को प्राप्त किया। गुजरात और काठियावाड़ की विजय के कारण अब गुप्त साम्राज्य की सीमा पश्चिम में अरब सागर तक विस्तृत हो गई थी। नये जीते हुए प्रदेशों पर भली-भाँति शासन करने के लिए पाटलिपुत्र बहुत दूर पड़ता था। इसलिए चंद्रगुप्त द्वितीय ने उज्जयिनी को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।
साम्राज्य विस्तार
गुजरात-काठियावाड़ के शक-महाक्षत्रपों के अतिरिक्त गान्धार कम्बोज के शक-मुरुण्डों (कुषाणों) का भी चंद्रगुप्त ने संहार किया था। दिल्ली के समीप महरौली में लोहे का एक 'विष्णुध्वज (स्तम्भ)' है, जिस पर चंद्र नाम के एक प्रतापी सम्राट का लेख उत्कीर्ण है। ऐतिहासिको का मत है, कि यह लेख गुप्तवंशी चंद्रगुप्त द्वितीय का ही है। इस लेख में चंद्र की विजयों का वर्णन करते हुए कहा गया है, कि उसने सिन्ध के सप्तमुखों (प्राचीन सप्तसैन्धव देश की सात नदियों) को पार कर वाल्हीक (बल्ख) देश तक युद्ध में विजय प्राप्त की थी। पंजाब की सात नदियों यमुना, सतलुज, व्यास, रावी, चिनाब, जेलहम और सिन्धु का प्रदेश प्राचीन समय में 'सप्तसैन्धव' कहाता था। इसके परे के प्रदेश में उस समय शक-मुरुण्डों या कुषाणों का राज्य विद्यमान था। सम्भवतः इन्हीं शक-मुरुण्डों ने ध्रुवदेवी पर हाथ उठाने का दुस्साहस किया था। अब ध्रुवदेवी और उसके पति चंद्रगुप्त द्वितीय के प्रताप ने बल्ख तक इन शक-मुरुण्डों का उच्छेद कर दिया, और गुप्त साम्राज्य की पश्चिमोत्तर सीमा को सुदूर वंक्षु नदी तक पहुँचा दिया